ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
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समकालीन कहानी संग्रह
‘तुम्हारी यह हालत कैसे हो गई-?’
वह ऊपर को हाथ उठा देता। यही तोते की तरह रटे हुए उत्तर होते थे उसके।
अब तो समय ऐसा आ गया। ईद के त्यौहार पर कोई सुअरों को मस्जिद की ओर धकेल देता तो जन्माष्टमी के दिन कोई मन्दिर के आस-पास मरी गाय डाल देता, बस फिर क्या दोनों ओर से चिंगारियाँ फूटने लगती। हर बार कई बहनें बिन भाईयों के, कई माता बिना बेटों के तथा कई स्त्रियों का सिन्दूर मिट जाता।
पार्क के किनारे किशोरी लाल की दुकान है बस यही ऐसा व्यक्ति है जो चाहता है हिन्दू-मुसलमानों का झगड़ा न हो। जब कभी झगड़ा छिड़ता तो कई दिनों तक मुसलमान उसकी दुकान पर न चढ़ते।
बस्ती से दूर सरकारी पाठशाला में दोनों सम्प्रदायों के बच्चे पढ़ते हैं। दोनों बस्तियों से अलग-अलग दो पगडंडियां निकलती हैं जो पाठशाला जाने वाली कच्ची सड़क से मिल जाती हैं।
छुट्टी के समय बच्चे स्कूल से कैसे उल्लास और खुशी से चहकते हुए निकलते हैं लेकिन पगडंडियों के मोड़ पर आकर सहमें से संभल जाते हैं।
‘मोहन हमारी समझ में तो आए नहीं आज के सवाल, बोलो हिसाब का काम कैसे करेंगे, हमारी तो मुसीबत आ गई –’ मुमताज मोहन के साथ भारी बस्ता उठाए चलने का प्रयत्न कर रही थी।
‘हमारे घर आकर मेरी कॉपी ले जाना- मोहन ने अपना बस्ता ऊपर को उठाया।
‘ना बाबा ना ...’ उसकी आंखों में अजीब-सा भय समा गया... उसने मीना को मरते हुए अपनी आंखों से देखा था। उसी की पड़ोस में तो था उसका घर।
सब उसे मीना दीदी कहते थे। कोई कुछ कहता है तो कोई कुछ। असल बात किसी को नहीं मालूम वह उस सायं को हिन्दुओं के मोहल्ले में क्या करने गई।
हिन्दुओं ने ही तो यह बात फैलाई थी - यह लड़की हिन्दुओं के जवान लड़कों को बिगाड़ने आती है। उस दिन मुसलमानों ने भी उसे पार्क पार करते हुए देखा था। उसके अब्बा ने उसे बहुत मारा था। फिर पंचायत हुई मस्जिद में। उसके अब्बा को भी बुलवाया।
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