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तिरंगा हाउस

मधुकांत

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9728
आईएसबीएन :9781613016022

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समकालीन कहानी संग्रह

रोशन अली


रेलवे लाइन की ऊंची मचान पर से दोनों अलग-अलग फैली बस्तियों को साफ-साफ देखा जा सकता है। सामने दूर तक फैली लम्बी श्रृखंला में हिन्दू परिवार रहते हैं और पार्क को पार करके दूसरी ओर अव्यवस्थित सी झुण्ड नुमा बस्ती मुसलमानों की है और वह उन दोनों के बीच से पतली सी पगडंडी निकलकर दूर खेतों में उस बड़े भवन की ओर जाती वह इस बस्ती की पाठशाला है।

तब आजादी नहीं मिली थी। बीच वाला पार्क, तब इसे बाग कहते थे, फल-फूलों से लदा रहता था। दोनों सम्प्रदायों की यहीं तो बैठक होती थी। दिवाली, ईद, होली, मुहर्रम सब त्यौहार साथ-साथ मिलकर इसी में तो मनाते थे।

पार्क के दाईं ओर वह सफेद भवन जिस पर पीतल का कलश साफ दिखाई पड़ता है यह हिन्दुओं का मन्दिर है और बस्ती के पीछे की ओर जो सबसे ऊँची मिनार दिखाई पड़ती है वह हिन्दुओं की होड़ में बनाई गई भव्य इमारत, मस्जिद है। पहले एक छोटी सी मस्जिद थी, बस्ती के बीच में सब उसी में नमाज पढ़ते थे लेकिन आजकल सब नई मस्जिद में एकत्रित होते हैं।

उसकी दाढ़ी अस्त-व्यस्त, बाल मटमैले तथा चेहरा गहरा काला है। शरीर पर गुदड़ी पड़ी रहती है। उसे कभी कहीं किसी ने स्नान करते नहीं देखा। लोग उसे पागल भिखारी समझते हैं लेकिन वह कभी किसी से भीख नहीं मांगता और न ही पागलों-सा व्यवहार करता है। पार्क के सूखे ढूंठ के नीचे उसका डेरा रहता है। वहीं कोई न कोई उसे खाने को दे जाता है।

कभी कोई उसकी झोली में रोटी डालते हुए पूछ लेता ‘दादा क्या नाम है तुम्हारा?

‘रोशन अली सिरड़ी बाबा’ - सफेद काले बालों में उसकी मुस्कान बिखर जाती है। बच्चे भी सिरड़ी बाबा-सिरड़ी वाला कहकर हंसते। लेकिन वह इससे चिड़ता नहीं था बल्कि बच्चों को हंसता हुआ देखकर वह भी हंसता रहता।

‘कहां के रहने वाले हो’ - कभी कोई अजनबी उससे पूछ बैठता?

जमीन की ओर संकेत करके वह मुस्कराता।

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