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तिरंगा हाउस

मधुकांत

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9728
आईएसबीएन :9781613016022

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समकालीन कहानी संग्रह

‘पागल हो गई है क्या... बहू अकेली है... पहला बच्चा है, कहीं कुछ बात हो गई तो मुँह काला हो जाएगा।

‘पर बिना बुलाए किसके घर में जा घुसें - कहते-कहते उनकी ममता पिघल गई थी।

तभी राजू ने आगे बढ़कर मां के पांव छू लिए। मां ने उसे गले से लगा लिया।

‘जरा जल्दी कर हस्पताल जाना है। कुछ रुपये भी निकाल लियो... क्या पता क्या जरूरत पड़ जाए... दादी बन जाओगी... कोई हंसी मजाक थोड़े है- हंसते हुए उन्होंने भी अपनी बेंत संभाल ली।

तांगे के पीछे राजू मां के साथ बैठा था। अगली सीट पर बाबू मनसाराम अपने विचारों में खोए थे- ‘राजू के जन्म पर उसे भी कितनी खुशी थी लेकिन क्या मिला... यदि राजू ने भी उसी भूल को दोहराया तो... ।’

तांगा रुक गया। अन्दर प्रवेश करते ही एक नर्स ने लड़का होने का समाचार दिया। सभी के चेहरे खुशी से खिल गए।

मां तेजी से नर्स के साथ प्रसूति गृह में प्रवेश कर गयी और राजू पिजाजी का आशीर्वाद लेने के लिए उसके चरणों में झुक गया।

बाबू मनसाराम ने उसे उठाकर सामने खड़ा कर लिया - सुन बेटा राजू.... लड़का हुआ, इसकी खुशी सबको हुई है लेकिन एक बात तुम्हें कह देना चाहता हूँ, गांठ बाँध लेना।- कभी भी बच्चे को लेकर बड़े सपने मत देखना... केवल उन्हें ही अपना भविष्य मत समझ लेना और उनके मोह में इतने पागल भी न हो जाना कि तुम्हें उसकी त्रुटियां भी न दिखाई दें...’

राजू की दृष्टि कुछ ऊपर को उठी।

बेटा आजकल के बच्चे परखनली में जन्में बच्चों से कम नहीं होते। उनका पालन पोषण भी वैज्ञानिक तरीके के अनुसार होना चाहिए अन्यथा तुम्हें भी मेरी तरह पछताना पड़ेगा- कहते-कहते उनकी आंखे गहरा गई थीं।

‘पिताजी अब तो मुझ पर भी उत्तरदायित्व आ गया है- नम आंखो से राजू ने पुनः पिताजी के कदम छू लिए।

दोनों के बीच गहन खामोशी छा गई। उनकी आंखें कमरे के द्वार पर टकटका रही थी... कि उसमें से कोई निकले और मौन को तोड़े... ।

 

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