ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
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समकालीन कहानी संग्रह
उन्हें राजू से ऐसी उम्मीद न थी। एक गहरी सांस लेकर उन्होंने अपने आपको समझाया- चलो अच्छा ही हुआ एक दिन तो उसे घर की जिम्मेदारी संभालनी ही थी जितना जल्दी संभाल ले उतना ही अच्छा। इस विचार से वे अन्दर-ही अन्दर टूटकर बिखर गये थे।
कई बार उसे राजू के हाथ तंग होने का समाचार मिलता। अलग होकर दाल रोटी का भाव मालूम हो गया-कहते हुए वे संतोष अनुभव करते लेकिन अन्दर से अधिक टूट जाते थे।
कई बार वे सोचते कि राजू का हाथ इतना तंग हो जाए कि उसे यहां आना पड़े... वह उसे कलेजे से लगा लेगा। सब कुछ उसने राजू को ही तो समझा था... क्या जाते-जाते उसके पांव भी नहीं छू सकता था... ठीक है उसका कौन-सा कलेजा फटा जा रहा है-गल्ले की धूल झाड़ते उन्होंने अपना दिल मजबूत कर लिया।
सुबह के ग्राहक निपटाकर वे दोपहर को सुस्ता रहे थे कि उन्हें दूर से राजू आता दिखाई दिया। विश्वास जमाने के लिए उन्होंने अपना चश्मा ऊपर को उठाया। ‘आ तो दुकान की ओर रहा है... गर्दन झुकी है’... देखकर उनका दिल धड़कने लगा।
‘पिताजी मुझे क्षमा कर दें... मुझसे बहुत गलतियाँ हुई हैं’- राजू उनके पांवों में बैठकर गिड़गिड़ाने लगा।
‘अरे बेटा ये क्या कर रहा है। ठीक से बैठकर बता क्या बात है- उन्हें पत्थर बनने की बात याद ही न आई और पहली नजर में ही उसे स्वीकार लिया।
‘पिता जी, उसके बच्चा होने वाला है... देखभाल करने वाला कोई नहीं...’
बहू कहां है...?’
‘जी हस्पताल में...’
‘अरे पागल बहू को बच्चा होने वाला है। तूने इतने दिन से बताया क्यों नहीं। तू दुकान बन्द कर, मैं तेरी मां को लेकर आता हूँ-‘ बाबू मनसाराम की ढलती उम्र की स्फूर्ति देखते ही बनती थी।
‘सुनती है... अपने राजू की बहू को बच्चा होने वाला है... चल जल्दी से तैयार हो जा‘ कमरे में प्रवेश करते हुए उन्होंने बात पूरी कर दी।
‘बच्चा हो या कुछ हो मुझे नहीं जाना’- रसोई से बाहर निकलते हुए कठोरता से उसने अपना निर्णय सुना दिया।
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