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तिरंगा हाउस

मधुकांत

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9728
आईएसबीएन :9781613016022

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समकालीन कहानी संग्रह

मैं तो पहले ही कहती थी इतना मोह अच्छा नहीं। अब पता लग गया आपको... लेकिन अब सब्र से काम लो। राजू अब बच्चा नहीं है जो घर से निकालने की धमकी दे रहे हो। तुम्हारे बराबर का लगता है। सोच समझ कर हाथ उठाना चाहिए... अपनी इज्जत रखनी अपने हाथ होती है-सारी तलखी को उगलकर वह कमरे से बाहर चली गई थी।

‘हां... इस बात को तो उसने सोचा ही नहीं-लड़का जवान हो गया है’-उनका क्रोध चिन्ता में बदल गया। कमरे की दीवारें उसे अलग होती दिखाई दी। कहीं वह इन दीवारों के बीच कुचला न जाए-सोच कर वे बाजार की ओर निकल पड़े।

बाजार में एक-दो साथियों के साथ बैठकर उनका मन हल्का हो गया और समस्या का समाधान भी मिल गया। घर लौटे तो अपने आपको बड़ा हल्का अनुभव कर रहे थे।

पिता को कमरे में आया देख राजू सहम कर खड़ा हो गया। ‘बेटा अब सोच लो पढ़ाई तुम्हारी किस्मत में थी ही नहीं-लेकिन अब ये तो बताओ आगे क्या करने का विचार है?’

पिता की नम्रता को देखकर राजू को आश्चर्य हुआ। आश्वस्त सा होकर वह बोला-कोई काम कर लूंगा पिता जी...।

‘क्या काम करेगा बेटा...’ देखो कालेज में पढ़ना अलग बात है लेकिन कमाने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है... उसने राजू को समझाते हुए कहा।

‘पिता जी आप मुझे कोई काम दिला दें, मैं मेहनत करने से नहीं डरता।

‘ठीक है देखूंगा-कहते हुए उन्होंने पांव चारपाई पर खोल दिए थे। कई दिनों की छुट्टी करके वे राजू के साथ अपने दोस्तों, रिश्तेदारों के पास घूमे। तब जाकर भारत टैक्सटाइल में उसे पैकिंग का काम दिलवा सके।

घर के दो सदस्यों की कमाई से आर्थिक हालत धीरे-धीरे सुधरने लगी। अब उनका ध्यान टूटे हुए मकान, अपने फटे जूते, पत्नी की फटी धोती की ओर गया, तो भी राजू की पहली तनख्वाह पर उन्होंने बैंक में रिकरिंग खाता खोल आने का आदेश दिया था।

लड़के की मूंछें काली होने लगीं। उसके रिश्ते वाले आने आरम्भ हो गए। उन्होंने पत्नी के माध्यम से राजू से रिश्ते की बात चलाई तो उसने मौन स्वीकृति दे दी। अब उन्हें लड़के का बाप होना अच्छा लगने लगा।

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