ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
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समकालीन कहानी संग्रह
उनके सपने तो तार-तार होकर तभी बिखर गए थे जब वे राजू से मिलने होस्टल में गए थे। उन्होंने समझ लिया था कि वे अब तक सांप को दूध पिलाते रहे हैं।
व्यथित कदमों से जब वे घर लौटे तो अपना सबकुछ खो चुके थे पर अपनी पत्नी को उन्होंने कुछ नहीं बताया और सारे दर्द को कठोर बनकर सीने में समेट लिया। वे नहीं चाहते थे कोई भी दर्द में उनका भागीदार बने और पत्नी से कहते कैसे भय था कि दोष उन्हीं का बताया जाएगा।
दफ्तर जाते हुए उनकी पिंडलियां दर्द करने लगी थी। उन्हें लगता जैसे दफ्तर की फाइलें भूत बनकर उनका मांस नोंच लेगीं। वह दिन उनके लिए भारी पड़ता जा रहा था।
फिर एक दिन दफ्तर से लौटे तो खून का पानी ही हो गया-राजू... तुम... अचानक... उनके अरमानों पर बिजली सी टूट पड़ी।
राजू सहमा सा गर्दन झुकाए खड़ा था... बस...।
एक क्षण में उन्होंने सब समझ लिया- राजू को कालेज से निकाल दिया होगा। क्रोध के कारण वे स्वयं ही कांपने लगे थे-‘अरे कमीने’ बोलता क्यों नहीं। मेरी नाक बची है बस, ले जाकर इसे भी बाजार में नीलाम कर दे...
राजू तो पत्थर का बुत-सा बन गया था।
‘कालेज से निकाल दिया ना... जा अब इस घर में भी तेरे लिए कोई स्थान नहीं है-वे उसे धक्के देकर बाहर की ओर धकेलने लगे।
ये क्या कर रहे हो-पत्नी ने बीच में आकर छुड़ा लिया और उन्हें दूसरे कमरे में ले गई।
वे अपना सिर थाम कर बैठ गये थे।
‘बात क्या हो गई जो मेरे राजू पर इतना बरस रहे हो’...? पत्नी ने कमरे में आकर पूछा।
‘राजू की मां तेरे लाडले की बदचलनी के कारण कालेज से निकाल दिया है। मेरे तो सारे सपने धूल में मिल गए। इस नालायक से अब मुझे कोई उम्मीद नहीं रही-कहते-कहते उनका स्वर भुरभरा गया था। माथे पर जाकर हाथ जम सा गया था।
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