ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
|
9 पाठकों को प्रिय 344 पाठक हैं |
समकालीन कहानी संग्रह
परखनली में जन्म
एक थकी-थकी सी घुमस भरी सुबह... बाबू मनसाराम तराजू और बट्टों को साफ करते हुए स्फुट स्वर में सूरदास का भजन गुनगुना रहे थे। पहाड़ों से छलछलाती उछलती गिरती नदी अब समतल मैदान में बहने लगी थी, ऐसा ही अनुभव करते थे बाबू मनसाराम। नौकरी से रिटायर होने के बाद अपने मकान के नीचे बन्द पड़ी कोठरी में एक परचून की दूकान खोलकर अब तो साधू की तरह जीवन यापन कर रहे थे। सारी उमंगें... आशाएं खेलकर केवल पेट भरने के लिए उन्हें तराजू बट्टों से खटना पड़ता था।
‘एक किलो बढि़या गूंद देना लाला जी’ -ग्राहक के चेहरे पर खुशी बिखरी जा रही थी।
‘कोई बच्चा हो गया क्या...भाई मुरारीलाल-तराजू के पलड़े को सीधा करते हुए बाबू मनसाराम ने मैंले चश्में में से घूरा।’
‘हां लाला जी परसों लड़का हुआ था-कहते हुए मुरारीलाल अपनी सातवीं सन्तान के लिए लज्जा से गए थे।’
‘अच्छा भाई... बड़ी खुशी हुई-मुस्कराहट की पर्त चढ़ाकर भारी मन से बधाई दी और कांपते हाथ से पलड़े में गूंद डालने लगे। समतल मैदान में बहती नदी फिर एक चट्टान से टकराई और इस शोर को वह अपने सीने में न ओट सकी-‘भाई मुरारी लाल लड़का होता है तो कम खुशी नहीं होती लेकिन बड़ा होता है तो दुःख कम नहीं देता- बाबू मनसाराम का गम पिघल कर निकल ही पड़ा।
खुशी के अवसर पर ऐसी जली बात किसे अच्छी लगेगी।
‘कितने पैसे हुए?- मुरारी लाल ने भी तलखी से अपना रोष प्रकट किया।
‘दो सौ बीस रुपये... बाबू मनसाराम का स्वर मर सा गया था। मुरारी लाल की तलखी उनके दिल में उतर गई थी। एक गहरा सांस उनके सीने से निकला-किसी को क्या दोष दें, जब अपना ही सिक्का खोटा हो...’ और वे अपने सिक्के के खोटेपन को परखने में खो गए...।
|