ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
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समकालीन कहानी संग्रह
‘ऐसा न कहें पापा’..... भइया ने बीच बचाव करना चाहा।
(आज मन की मुराद पूरी हो गयी पापा ने उसे घर से निकाल दिया तो सारी सम्पत्ति मेरी हो जाएगी फिर मजे ही मजे)
वह सुपर कम्प्यूटर बनाने की खुशी को विवाद करके नष्ट नहीं करना चाहता था इसलिए बिना कुछ बोले अपने कमरे में लौट आया।
कमरा बंद करके उसने अपना मोबाइल निकालकर कम्प्यूटर के साथ जोड़ लिया और अपने से मिलने वाले प्रत्येक व्यक्ति की प्रतिक्रिया पढ़ने लगा। जैसे-जैसे प्रतिक्रिया पढ़ता गया। उसका आश्चर्य और क्रोध बढ़ता गया। सबके सब कपटी, डबल-सटैण्डर्ड रखते हैं। मुंह में राम-राम और बगल में छुरी। अपने सबसे पक्के दोस्त नरेश, जान से अधिक प्रिय दिव्या, समाज सेवी-सेवकराम, मास्टर-गंगाराम, बड़े भाई और पिता जी सब दोगले....... फिर किस पर विश्वास करें।
इतना तो उसे संतोष हुआ कि उसका आविष्कार सफल रहा परन्तु वह सोचने लगा इस आविष्कार से तो सगे सम्बन्धियों, यारे-प्यारे लोगों के साथ बने रिश्तों की बुनियाद ही हिल जाएगी। कोई किसी पर कैसे विश्वास करेगा? प्रेम, दया, सहानुभूति, ममता, स्नेह, आदर, सत्कार, सम्मान, संवेग जैसे आधारभूत शब्दों का क्या अर्थ रह जाएगा? ऐसे आविष्कार से क्या लाभ जिससे मानवीय संवेदनाएं ही मर जाएं? यह तो एक विध्वंशकारी बम बनाने जैसा कुकृत्य हुआ। उसका सारा उत्साह धूमिल हो गया।
लैपटॉप के सामने खड़े होकर उसने अपने आविष्कार को गौर से देखा। कुछ सोचकर वह एकदम कांप गया। ये तो उसने कभी सोचा भी नहीं था कि किसी ने लैपटाप की आंख मेरी और घुमा दी तो, मैं तो एकदम नंगा ही हो जाऊंगा..... हे भगवान! मैंने ये क्या खोज लिया?..... डरते डरते उसने लैपटाप को दोनों हाथों में उठाया और खिड़की के रास्ते बाहर सड़क पर फेंक दिया।
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