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तिरंगा हाउस

मधुकांत

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9728
आईएसबीएन :9781613016022

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समकालीन कहानी संग्रह

दोपहर को घर लौटा तो बड़े भइया और पिता जी डाइनिंग टेबल पर बैठे थे।

‘रमन तुम भी आज खाना हमारे साथ खा लो’ भइया ने आवाज लगायी और वह चुपचाप उनके पास जा बैठा।

‘रमन तुम भी कभी-कभी फैक्ट्री में आ जाया करो’- पिता जी ने कहा।

‘पापा यह वर्ष मेरी पढ़ाई का आखरी वर्ष है, फिर तो मुझे आपके साथ रहना ही है।’

(क्या खाक पढ़ाई करता है सारा दिन कम्प्यूटर लैब में पड़ा रहता है। हमारे स्टेटस की कोई चिंता नहीं है। ऐसे लड़के का होना न होना बराबर है)

‘पापा एक साल की तो बात है मौज मस्ती कर लेने दो, फिर तो सारी उमर काम ही करना है’ भाई ने उसकी हिमायत की।

(अच्छा है अपनी कम्प्यूटर लैब में ही पड़ा रहे फैक्ट्री आ गया तो मेरी गोलमाल पकड़ लेगा। ये तो अपनी लैब में ही पड़ा रहे तो ठीक है। इसे निकम्मा समझकर पापा सारी प्रोपर्टी मेरे नाम करते रहें तो अच्छा ही है)

‘पापा मैं एक लड़की के साथ शादी करना चाहता हूँ- साहस करके रमन ने प्रस्ताव रख दिया।

‘कौन है लड़की...?’ इस प्रस्ताव ने सबको चौंका दिया।

‘मेरे साथ पढ़ती है। उसके पिता गजेन्द्र अपनी फैक्ट्री में काम करते हैं।’

‘क्या कहा उस दगाबाज गजेन्द्र की लड़की। हमेशा मजदूरों को भड़काता रहता है..... उसके साथ तो शादी का ख्याल भी न करना।’

‘पापा मैंने फैसला कर लिया है’

‘हमारा फैंसला तेरे फैसले से महत्वपूर्ण है यदि तुमने अपनी मनमानी की तो अपनी सम्पति में से एक फूटी कौडी भी नहीं दूंगा।

‘पापा आपकी सम्पत्ति में से मुझे कुछ नहीं चाहिए।’ हौसले के साथ उसने कहा।

‘मैं तुम्हें अपने घर में नहीं रखूंगा’ पिता जी पूरे कठोर बन गए।

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