ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
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समकालीन कहानी संग्रह
‘तुम्हारा हाथ मेरे हाथ में दे दें, ये क्या कम दहेज है.......।’
(एक बार मछली को मेरे कांटे में फंस जाने दो फिर दहेज तो तुम्हारे बाप से मैं ही वसूल कर लूंगी। अपनी उंगली पर न नचाया तो मेरा नाम भी दिव्या नहीं)
‘ओ.के. बाय’.... कहकर दिव्या चली गयी।
पार्क से निकलते ही समाज सेवी सेवाराम और मास्टर गंगाराम मिल गए।
नमस्ते अग्रवाल जी’ - सेवकराम ने आगे बढ़कर अभिवादन किया। (मोबाइल तो चालू ही था- अपनी गरज में गधे को भी बाप बनाना पड़ता है।)
‘रविवार है इसलिए हम आपके पिता जी के दर्शन करने जा रहे है’... मास्टर गंगाराम ने विनम्रता दिखायी।
‘कोई विशेष काम है क्या?’
‘जी हाँ, इस बार गणतन्त्र दिवस पर स्कूल में झण्डा आपके पिता जी से फहरवाना चाहते हैं क्योंकि उनसे बड़ा देशभक्त हमें आसपास दिखायी नहीं देता।’
(नेताओं से मिली भगत करके भ्रष्टाचार में नम्बर वन है। देश के लोगों को लूट-लूट कर अपना घर भर लिया है, परन्तु हमें क्या झण्डा फहराकर, बच्चों को मिठाई और स्कूल को दस-बीस हजार दे जाए तो क्या बुरा है।)
सेवकराम जी ने भी अपना मुंह खोला- ‘अग्रवाल जी सरकार ने एड्स की जागरुकता के लिए प्रत्येक जिले में दो-दो लाख के प्रोजेक्ट दिए हैं, स्वास्थ्य मंत्री तो आपके पिता जी से मिलने आते ही रहते हैं यदि एक प्रोजेक्ट मुझे भी मिल जाए तो इस क्षेत्र में एड्स की भयानकता के विषय में जागरुकता फैला दूँ।’
(एक बार प्रोजेक्ट मंजूर हो जाए फिर तो दस प्रतिशत प्रोजेक्ट अधिकारी को तीस प्रतिशत खर्च और दस प्रतिशत और खर्च लगा लो बाकी पचास प्रतिशत अपनी जेब में- जनता के टैक्स का पैसा है.... खाओ और लुटाओ)
‘देखिए महाशय मुझे तो अभी पुस्तकालय जाना है आप पिता जी से मिल आइए’- कहते हुए वह लाइब्रेरी रोड़ पर मुड़ गया।
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