ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
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समकालीन कहानी संग्रह
‘अजीब आदमी है’- नरेश आश्चर्य से उसे जाते हुए देखता रहा।
बाहर आकर उसने दिव्या को फोन किया। वह तो जैसे मिलने के लिए उतावली हुई बैठी थी। पार्क में मिलने का निश्चय हो गया।
सुबह सुबह पार्क, फूल, पौधे, पक्षी कितने सुंदर लगते हैं और दिव्या भी आज उसे पहले से अधिक सुंदर लगी- तुम बहुत सुंदर हो दिव्या- पार्क के कोने में बैठते हुए रमन ने कहा और अपना मोबाइल आन कर दिया।
‘जो खुद सुन्दर होते हैं उसे सब सुन्दर लगते हैं.....।’
(काले-कलूटे दातुएं को सुंदर बताने में भलाई है। कैसा भी हो, है तो पैसे वाला)
‘मैं कहाँ सुंदर हूँ।’
‘तुम्हारा दिल दुनिया में सबसे सुंदर है और इसलिए आई लव यू डियर’- दिव्या ने उसकी हथेली को अपने दोनों हाथों में दबा लिया।
(सुन्दर स्माट लड़के तो और भी मिल जाएंगे लेकिन अरबपति मिल मालिक का लड़का तो नहीं मिलेगा। एक बार शादी हो जाए, पैसा जेब में हो तो सब कुछ हासिल किया जा सकता है)
‘दिव्या मैं भी तुम्हे दिल की गहराईयों से चाहता हूँ.....।’
‘तो अपने घर में शादी की बात चलाओ ना’
‘इस वर्ष पढ़ाई तो पूरी हो जाने दो.......।’
‘कहीं घरवालों ने मेरी सगाई कर दी तो मैं जान ही दे दूंगी.... तुम्हारे बिना जीने का अब कोई अर्थ नहीं है।’
(ऐसे अमीर भंवरों का क्या भरोसा कि कब किस फूल से उड़ जाए। जितनी जल्दी हो इसको अपने जाल में बांध लेना चाहिए)
‘चिन्ता न करो दिव्या, ठीक अवसर देखकर मैं पिता जी से बात करूंगा।’
‘अगली मुलाकात में मैं तुम्हारे मुंह से ये समाचार सुनना चाहूंगी - कहते हुए हाथ छोड़कर दिव्या उठ गयी- ‘सच बता देती हूँ मेरे पिता जी के पास दहेज में देने के लिए कुछ नहीं है’।
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