ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
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समकालीन कहानी संग्रह
एक दिन उस आंगन में चौथे प्राणी के आ जाने से सारी नीरवता पायलों की आवाज में डूब गई। राजू का अन्तिम उत्तरदायित्व पूरा करके उन्होंने चैन की सांस ली... आगे उसकी किस्मत।
पत्नी भी खुश थी क्योंकि अब बहू ने घर का सारा काम संभाल लिया था लेकिन रात को सोते समय कभी-कभी कहती-‘मुझे बहू के तेवर कुछ ठीक नहीं लगते, सारे दिन राजू के कान भरती रहती है।’
‘अभी नई-नई आई है इसलिए तुझे ऐसा लगता है। तू चिन्ता न कर सब समझ जाएगी-पत्नी को समझाते लेकिन वह इसी बात को बहू की तरफदारी समझ कर करवट बदल लेती थी।
धीरे-धीरे वे स्वयं भी समझने लगे। लेकिन किससे कहते...। वे तो लाख प्रयत्न द्वारा सबको बांधे रखना चाहते थे। जिस प्रकार एक दिन उन्हें झाडू से निकालकर फेंक दिया था अब ऐसी स्थिति पैदा नहीं होने देना चाहते थे।
जिन्दगी धीरे-धीरे ऊबड़-खाबड़ पथ पर बढ़े जा रही कि अचानक ट्रक दुर्घटना में वे टांग गंवा बैठे। महीनों वह घर में बिस्तर पर पड़े रहे। कमाने के स्थान पर अब वे केवल खाने वाले प्राणी रह गये थे। घर में उनका स्थान दूसरा बन गया था और उन्हें हर आवश्यकता के लिए राजू का मुँह देखना पड़ता था।
उस दिन तो हद ही हो गई। कमरे में बैठे रसोई में हो रही सास-बहू की अनबन सुन रहे थे तभी राजू की तेज आवाज ने उन्हें आहत कर दिया-‘मां बीणा को तुम रोज धमकाती हो... मुझे यह अच्छा नहीं लगता। तुम इससे दुश्मनों जैसा व्यवहार करती हो’...
‘राजू... तेरा दिमाग फिर गया है... निकम्मे मां के सामने बीवी की पैरवी करता है... तुझे लज्जा भी नहीं आती... डूब मर कहीं चुल्लू भर पानी में... जोरू के गुलाम... वह क्रोध और पीड़ा से पागल सी हो गई थी।’
‘कुछ भी हो...मुझे यह रोज-रोज का झगड़ा अच्छा नहीं लगता। मैं आज ही अपने लिए कोई नया घर देख लूंगा-‘ कहकर राजू तेजी से बाहर निकल गया।
‘कमाने लगा है ना...इसी का तो घमण्ड है दोनो में’ मां ने कड़वा व्यंग किया-‘बाप ने अपना खून-सुखा कर पाला, मैंने नौ महीने पेट में सहेजा... सब भूल गया है-बाप लंगड़ा हो गया इसलिए अकड़ दिखाता है पर हम भी पक्की मिट्टी के बने हैं, जाना है तो जा, रोकेंगे नहीं...।’
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