ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
|
9 पाठकों को प्रिय 344 पाठक हैं |
समकालीन कहानी संग्रह
ठाकुर जी को भोग लगाकर दमयंती ने नाश्ता किया। मन लगाने के लिए उसने चरखा चलाने और भजन गाने का उपक्रम किया परन्तु वह विचारों के भवंरजाल में इतनी फंसी हुई थी कि उसे कुछ अच्छा न लगा। राजरानी आयी तो वह विचारों से निकलकर वर्तमान में आ गई। राजरानी पीढा खेंचकर दमयंती के पास बैठ गयी- अच्छा, जीजी शहर के ठाट -बाट सुना। सुना है अपना बदलराम बड़ा अफसर बन गया, नौकर चाकर, गाडी बंगला, सब मिला है.... खूब मजे किए होंगे....?
‘देख राजरानी सबके सामने तो मन की बात बताई नहीं जाती। बदलराम अफसर तो बन गया। खाने पीने की सब चीजों की मौज, भगवान ने कोई कमी नहीं छोड़ी। बहू में कोई कमी नहीं पर न जाने क्यूँ मेरा तो मन ही नहीं लगा.....।’
सारी बातों की मौज, फिर भी मन नहीं लगा? राजरानी ने बात काटकर कहा।
‘सच बताऊँ राजरानी जब से शहर गई मुझे यही घर याद आता रहा। मेरा बदलराम अफसर तो जरूर बन गया परन्तु मुझे तो अपना मास्टर बदल ही अच्छा लागै..... कहते कहते दमयन्ती की आंखों से दो आंसू लुढककर कच्चे फर्श में समा गए। राजरानी उसके आंसुओं को देखकर कुछ न समझ पायी। सब कुछ होते हुए भी आदमी की वेदना का कुछ पता नहीं लगता। दमयंती जमीन में नजरें गड़ाए गहन सागर में डूब गयी। राजरानी उसके चेहरे को देखकर भावों को पढ़ने का प्रयत्न करती रही।
|