ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
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समकालीन कहानी संग्रह
‘देखों मां, अब हममें से तो कोई गांव में जाकर ठहर सकता नहीं और तुझको वहां अकेली कैसे छोड़ दें....।
‘बेटे, वहाँ मुझे अकेली रहने में क्या कठिनाई है?... वहां सारा परिवार है, जान पहचान के लोग हैं.... वैसे बेटा मुझे यहां भी कोई दिक्कत नहीं, नौकर चाकर, सब आराम है.... फिर भी अपना घर तो अपना होता है..।’
‘मां तू कहे तो तेरे साथ एक आया भेजने का प्रबन्ध कर दूं........
‘ना बेटे ना, उसकी जरूरत बिल्कुल नहीं। अपने मन का तो खाना पीना कुछ भी बना लूँ। आया साथ होगी तो मुझे उसकी चिंता और लगी रहेगी.... फिर मेरे कौन से हाथ पैर टूट गए हैं.... भली चंगी हूँ.... अपना सारा काम आराम से कर सकती हूँ.....।’
‘ठीक है मां तुझे जो अच्छा लगेगा हम वहीं करेंगे कहते हुए राणा साहब उठकर अपने कमरे में चला गया। रविवार को सुबह सुबह दमयन्ती का सामान पैक होने लगा। उसे गांव में छोडने के लिए बेटा, बहू और चुन्नू भी आया था। दमयंती के गांव में लौटने का समाचार कानोकान तुरंत पूरे मोहल्ले में फैल गया। तुरंत ही मोहल्ले की औरतें आवभगत के लिए एकत्रित हो गईं। सारी व्यवस्था करने के बाद बदलराम मां के पांव छूकर शहर लौट गया।
सुबह सवेरे पांच बजे दमयंती की आंख खुल गई। आंख तो शहर में भी पांच बजे खुल जाती थी। बच्चों की नींद खराब न हो इसलिए वह चुपचाप विस्तर पर बैठी उनके उठने का इंतजार करती रहती। अपना घर, वर्षों से सब कुछ जाना पहचाना। स्नान आदि से निवृत होने के बाद वह भजन गाते हुए अपने ठाकुर की कुंडली संवारने लगी। यूँ तो सारा घर अड़ोस पड़ोस वालों ने संवार दिया परंतु ठाकुर जी को तो उसने अपने हाथों से स्नान आदि कराकर नए वस्त्र पहनाए।
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