ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
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समकालीन कहानी संग्रह
कमला को लड़का हुआ तो दमयंती की दिनचर्या ही बदल गयी। पोते को नहलाने खिलाने पिलाने सुलाने में इतनी व्यस्त हो गयी कि उसको प्रतिदिन के कार्यों के लिए समय ही न बचता।
’एक दिन मां को बदलराम ने बताया मां मेरी एक और तरक्की हो गयी..... अब मैं जिला शिक्षा अधिकारी बन गया........।‘
‘अरे पागल ये तो बहुत खुशी की बात है इसमें इतना मुंह लटकाने की कौन सी बात है......।’
‘मां अब गांव में रहना संभव नहीं है, तुम्हें हमारे साथ शहर में चलना पडेगा- बडे भारी मन से बदलराम ने कहा। यह सुनकर तो मां के चेहरे पर भी चिंता की रेखाए खिंच गयी- बेटे यदि मैं यहा अकेली रह लूँ तो....।
‘मां गांव में तुम्हे कैसे अकेली छोड़ दूँ। वहा मुझे तेरी ही चिंता लगी रहेगी। प्रतिदिन तेरा आशीर्वाद ही न मिलेगा तो मै काम कैसे कर पाऊँगा....?
शहर में कब जाना है?
अभी तो नहीं, एक महीने का समय है फिर भी मां योजना तो बनानी पड़ेगी।
‘कोई बात नहीं अब जाकर आराम कर भगवान ने अबतक रास्ता निकाला है तो इसका भी तरीका निकालेगा।
दमयंती बिस्तर पर पड़ी इसी विषय में सोच रही थी... सरकारी नौकरी में तो अदला -बदली का झमेला पड़ा ही रहता है इतने वर्ष पास में गुजर गए ये क्या कम है। अब घर गांव से बंधकर कोई तरक्की को तो छोड़ नहीं सकता। मां तो बच्चे को पैदा करके उसको पांव पर खड़ा कर देती है, उसे बेटे के पांव में ममता की जंजीर नहीं बांधती.... खुले आकाश में उसे ऊपर और ऊपर उड़ना है मां को तो उसे ऊपर उड़ते देखकर संतोष होना चाहिए। दमयन्ती को अपने बेटे की तरक्की देखकर बहुत खुशी है, वह शहर जा रहा है उसे इसका भी कोई मलाल नहीं लेकिन वह मां को गांव में नहीं छोड़ना चाहता.... इस उमर में शहर जाना.... न जाने कैसा लगेगा। उसे इसी बात की चिंता थी।
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