ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
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समकालीन कहानी संग्रह
कोई भी अध्यापक उसकी अतिरिक्त सहायता नहीं करता। एक दिन एक अध्यापक ने व्यंग्य से उसको बी.पी.एल. कार्ड कहकर सम्बोधित कर दिया तब से सारे बच्चों ने उसका नाम ही बी.पी.एल. कार्ड निकाल दिया।
नया और ढेर सारा होमवर्क, नई नई एक्टीविटी के लिए सामान, क्राफ्ट के लिए सामान, न जाने क्या क्या... रोज कुछ न कुछ नई खरीददारी.... हंसता, खिलखिलाता विद्यार्थी गुमसुम और उदास रहने लगा। कभी स्मार्ट-क्लास की फीस, कभी वार्षिक उत्सव चार्ज, कभी पिकनिक के लिए खर्चा....... पिता तो सदैव ना-नुकर करके टाल देते। मां कभी कभी दे देती फिर भी वह अनेक बार दूसरे बच्चों से अलग खड़ा दिखायी देता। लंच के समय जब दूसरे बच्चे ब्रेड-पकोडे, पीजा, बिस्कुट, चिप्स, कुरकरे आदि खाते तो वह अकेला कोने में बैठकर अचार रोटी खाता रहता। यूं वह प्रतिदिन स्नान करके आता था परन्तु कोई भी उसके साथ बैठकर खुश नहीं था। सब कहते उसमें से बदबू आती है।
फस्ट टर्म का परिणाम आया तो विद्यार्थी के बहुत कम अंक आए। रिजल्ट लेने माँ स्कूल में आयी थी। मुख्य अध्यापक ने मां को आफिस में बुलाकर साफ साफ समझा दिया - देखिए इस बार आपके बेटे के बहुत कम अंक आए है यदि वार्षिक परीक्षा में भी अनुत्तीर्ण हुआ तो हम आपके बेटे को स्कूल में नहीं रख पाएंगे। माँ वहाँ कुछ बोली नहीं सुन सुनाकर चली आयी। रास्ते में बेटे को समझाने लगी तेरे पिता तो पगला गए हैं, कहीं मास्टर से, डाक्टर से झगड़ा करके कुछ होता है.....। बेटा कुछ नहीं बोला। मन ही मन अपने पिता के फैसलों पर गुस्साता रहा। कई दिनों से तो उसने पिता से बात करना भी बंद कर दिया था। जब कभी स्कूल में समस्या होती तो मां को बता देता या पेट दर्द का बहाना करके छुट्टी मार लेता। छुट्टी करके वह अपने सरकारी स्कूल की चार दीवारी के पीछे जा छुपता और टुकर-टुकर अपने साथियों को हंसते, खेलते, पहाडे बोलते सुनता रहता।
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