ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
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समकालीन कहानी संग्रह
‘मास्टर जी ये नियम मैंने तो बनाया नहीं, हाईकोर्ट ने बनाया है, कुछ सोच समझ कर ही बनाया होगा कि प्रत्येक प्राइवेट स्कूल को २५ प्रतिशत गरीब बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा देनी होगी’।
देखो भाई साहब, आपका लड़का पांचवी कक्षा तक सरकारी स्कूल में पढ़ता रहा है। हमारे यहां सभी बच्चे अंग्रेजी माध्यम से पढते हैं इसलिए हमारे बच्चों के साथ एडजैस्ट होने में इसे बहुत कठिनाई आएगी- संचालक महोदय ने उसको टालने के लिए समझाया।
उसकी चिंता आप मत करो। ट्यूशन लगाकर हम इसको अंग्रेजी सिखवा देंगे.. पिता ने जिद्द पूर्वक कहा।
जब आप ट्यूशन पर खर्च कर सकते हैं तो स्कूल की फीस क्यों नहीं भर सकते।
‘भरने न भरने की बात अलग है जो सुविधा सरकार ने हमें दी है उसका तो लाभ उठाना ही चाहिए। आप सरकार के किसी कायदे-कानून का पालन तो करते नहीं, अपने घर की दुकान बना रखी है....’
आप इसे दुकान समझते हैं तो ये बताइए मार्केट में कितनी दुकाने हैं क्या सरकार उनको भी कह सकती है २५ प्रतिशत लोगों को फ्री में सामान दो। क्या कोई दुकानदार ऐसा कर पाएगा - संचालक महोदय संयमपूर्वक उसको समझा रहे थे।
‘देखो मास्टर, स्कूलों में १३४-ए का नियम मैंने तो लागू करवाया नहीं। यदि आप इसे दाखिला नहीं देते तो मुझे ऊपर वाले अधिकारियों से बात करनी पडेगी - अपना सारा क्रोध उगलते हुए पिता आपने सारे कागज समेट कर बाहर निकल आया।’
फिर हुआ शिक्षा मन्त्री, शिक्षा प्रबन्धकों, जिला एवं खण्ड शिक्षा अधिकारियों से पत्राचार। दस दिन में ही स्कूल के लिए नि:शुल्क दाखिला करने के आदेश आ गए।
नि:शुल्क दाखिला करवाते हुए पिता का सीना घमण्ड से फूला हुआ था तथा स्कूल संचालक दाखिला करते हुए खिन्न थे परन्तु दाखिल करना उनकी विवशता थी।
विद्यार्थी उस स्कूल में दाखिल क्या हुआ उस पर कठिनाइयों का पहाड़ टूट पड़ा। स्कूल की ड्रेस, किताबे, कॉपियां, बैग सब कुछ दूसरे छात्रों से हल्का रहता था। किसी न किसी चीज के लिए प्रतिदिन उसपर डांट पड़ जाती। दूसरे बच्चे अंग्रेजी में बातें करते तो वह उनके मुंह की ओर देखता रहता उसे अपना सरकारी स्कूल, स्कूल के साथी बहुत याद आते।
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