ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
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समकालीन कहानी संग्रह
वाह भई वाह, कमाल हो गया। सच बताओ, अब तो आपको पूरा विश्वास हो गया होगा कि एक साहित्य सेवी सचमुच विधाता होता है वह नाना प्रकार के पात्रों का निर्माण करता है उनको पालता-पोषता है और अंत में उनकी गति कर देता है। ठीक है, ‘विधाता श्री’ आपके शुभ निर्णय के लिए बहुत बधाई ........।
‘हरनाम जी ‘विधाता’ वाली बात कुछ हजम नहीं हो रही दोस्त’।
इसमें हजम न होने की कौन सी बात है...... सारी रात तो विधाता बने रहे और सुबह सुबह मुझसे पूछते हो... उसके शब्दों में हास्य घुला था।
‘ये तो सच है साहित्यकार एक सृजंनशील प्राणी होता है। वह वहां झांक सकता है जहां सामान्य जन कल्पना भी नहीं कर सकता परन्तु साहित्यकार को बनाने वाली, उससे सृजन कराने वाली, उसमें नए नए विचारों का उद्गम कराने वाली कोई सत्ता अवश्य है जो उसको भी नियंत्रित करती है। असली विधाता तो वह है...।
इसमें क्या शक है.... तो क्या तुम सचमुच में अपने आपको.... वह जोर जोर से हंसने लगा, और हंसता ही रहा, आखिर मैंने मोबाइल का स्वीच बंद कर दिया।
मैंने भी सारी रात विधाता बनकर गुजार दी.... अचानक मेरी भी हंसी फूट पड़ी। सोच सोच कर मैं भी हरनाम की भांति हंसता रहा। कुछ भी हो, नौजवान प्रेमी को जिंदा रखने का फैसला तो अच्छा हुआ। मैं फिर कहानी पूरी करने के लिए बैठ गया।
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