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तिरंगा हाउस

मधुकांत

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9728
आईएसबीएन :9781613016022

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समकालीन कहानी संग्रह

हरनाम जी ने भी कितना सच कहा था कि ‘मैं विधाता’ हूँ। रात जिस नायक को मारने का फैसला किया था, सुबह सवेरे उसको जिंदा रखने का फरमान सुना दिया।

रात को हरनाम ने फोन उठाया क्यों नहीं...? सुबह जल्दी उठता है इसलिए रात को नींद भी जल्दी आ जाती होगी। सुबह के पांच बज गए है अब तो वह उठ ही गया होगा। क्या उसे फोन करके अपने बदले हुए फैसले से अवगत करा देना चाहिए...।

अचानक मोबाइल की घंटी बचने लगी। इतनी सुबह-सवेरे किसका फोन..... तभी मोबाइल में हरनाम का नाम दिखाई दे गया। ‘ये भी अच्छा हुआ.... मैंने तेजी से मोबाइल उठाकर कान पर लगा लिया... ‘हैलो हरनाम जी सुप्रभात’।

सुप्रभात, सुबह उठकर देखा तो तुम्हारी मिस काल आयी हुई थी। कहिए रात के ग्यारह बजे कैसे याद किया....?

‘रात को तुम्हीं ने तो मुझे विधाता बनाया था इसलिए विधाता को पूरा अधिकार होता है किसी को कितने भी बजे फोन करे, जगाए...।’

‘हाँ ये बात तो ठीक है। तो कहिए विधाता जी, सुबह सुबह कैसे मिजाज हैं...? उसके लहजे में हास्य घुल गया था।

‘मिजाज अच्छे हैं। हाँ तुमको एक सूचना देनी थी कि जो कहानी कल मैंने आपको सुनाई थी उसमें प्रेमी नायक से आत्महत्या कराने का फैसला किया था, वह गलत था। तुम्हीं बताओं आत्महत्या कराना भी कोई बात हुई। जब आपने हमें विधाता ही बना दिया तो किसी को मारें ही क्यों.....? अपने पात्रों से जीवन का संघर्ष क्यों न कराएं ताकि सामान्य जन भी उनसे प्रेरणा लें इसलिए मैंने इस नौजवान प्रेमी को जिंदगी से लड़ने के लिए तैयार कर लिया है....।

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