ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
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समकालीन कहानी संग्रह
‘मैं विधाता’ अर्थात् भाग्य का निर्धारण करने वाला....। बार-बार ये शब्द मेरे दिमाग में आकर टकराने लगे। चेयर पर बैठे-बैठे मैंने अपना पेन बंद करके भरपूर अंगड़ाई ली। विधाता की भांति फैलकर मेरा शरीर विस्तृत हो गया। अब कुछ भी लिखने का मन न हुआ। विधाता शब्द ने मेरे दिमाग में खलबली मचा दी। पता नहीं हरनाम जी ने उपहास किया या व्यंग्य परन्तु विधाता मुझमें समाकर आनंदित और आह्लादित कर रहा था। मन नहीं हो रहा था कि इस शब्द को यूं ही छोड़ दिया जाए।
‘मैं विधाता.... मैं विधाता’ अन्त:करण की गहराईयों में बार-बार यह शब्द गुंजित हो रहा था। शब्द की प्रकृति के अनुसार उसे अधिक उन्मादित करने के लिए मैंने अपने गले को सुरा से तर कर लिया। वाह-वाह मेरे अंदर बैठा विधाता फैलकर व्यापक हो गया। अचानक बड़े-बड़े पंख निकल आए। खुले आकाश में बादलों के बीच स्वच्छन्द होकर विचरने लगा। सागर, नदियों, पहाड़ों, जंगलों के ऊपर, उड़ता हुआ, सारी दुनिया को अपनी खुली आँखों से देख सकता था।
हरनाम जी ने कुछ झूठ तो नहीं बोला। रचनाकार अपने एक जीवंत संसार की रचना करता है। मनु”य, जीव-जन्तु, वनस्पति, जल-थल, यहां तक कि वह पूरे ब्रãण्ड की रचना करता है। अपने पात्रों से नाना प्रकार की लीलाएं करवाता है। उनमें दु:ख-सुख, आदर-निरादर, प्यार-घृणा, विश्वास-अविश्वास आदि संवेदनाओं का सृजन करता है ........ स्त्री-पुरूष, बालक-बालिका, सज्जन-दुर्जन, कृपावान-दयावान, आदि अनेक गुणों का संचार करता है। एक दूसरे के साथ सम्बन्ध जोड़ता है-तोड़ता है..... जब चाहे उन्हें धनवान-निर्धन, स्वस्थ-अस्वस्थ, विद्वान-विद्याहीन, प्रसिद्ध-बदनाम, कर देता है। सबके जीवन की डोर उसके हाथ में होती है। विधाता के सामने सब कठपुतली की भांति नाचते हैं। कब वह किसकी डोर छोड़ दे और किसकी जोड़ दे, किसी को कुछ नहीं मालूम। ये सभी ईश्वर के कार्य हैं और रचनाधर्मी भी यही सब कार्य करता है। पात्र चाहे अपने आपको कुछ भी समझे परन्तु उसकी नकेल कलमकार के हाथ में होती है। लेखक के लिए तो सब बच्चे एक जैसे हैं इसलिए वह सदैव सभी चरित्रों के साथ न्याय करना चाहता है।
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