ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
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समकालीन कहानी संग्रह
पुन: वह मेज का सहारा लेकर कुर्सी पर बैठ गया। सुरा के उन्माद के साथ ‘मैं विधाता’ का भाव अधिक प्रबल हो गया। एक बार उसका मन हुआ पूरी शक्ति के साथ चिल्लाकर लोगों को सुनाएं ‘मैं विधाता’। फिर ख्याल आया सुनने वाला तो यहां कोई है नहीं.... चिल्लाकर सुनाए किसको? आत्म संतोष के लिए उसने धीरे से चिल्लाकर स्वयं को सुनाया ‘मैं विधाता’।
मेज पर चुपचाप पड़ा मोबाइल उसे अच्छा नहीं लगा। ‘मैं विधाता’ इतना प्रफुल्लित करने वाला विचार, फिर भी वह बेवकूफ मौन बैठा है... आज तो सब कुछ तरंगित होना चाहिए। एक झटके से उसने मोबाइल उठा लिया। उसका मन हुआ, जितने भी मिलने-जुलने वाले हैं सबको यह समाचार सुनाया जाए कि ‘मैं विधाता’ हूँ। घड़ी पर नजर गयी तो उसे ख्याल आया, रात के ग्यारह बज गए हैं, सब सो गए होंगे किसी को भी नींद से जगाकर यह समाचार देना कि ‘मैं विधाता’ हूँ, कुछ अच्छा नहीं लगेगा। हाँ हरनाम को बताया जा सकता है उसे जगा भी लिया जाए तो बुरा नहीं मानेगा। उसी ने तो यह विचार दिया था कि ‘मैं विधाता’ हूँ। अन्यथा मुझे तो मालूम ही कहां था। मोबाइल को हथेली पर रखकर डायल करता हूँ। देर तक लम्बी घंटी बजती है और फिर उसमें बैठा कम्प्यूटर वही रटी-रटायी भाषा बोलने लगता है। आपने जिस व्यक्ति का नम्बर डायल किया है वह शायद काल लेने के लिए उपस्थित नहीं है, कृपया कुछ समय बाद........। सो गया होगा शायद, एक बार पुन: डॉयल करता हूँ। उसी प्रकार लम्बी घंटी बजकर फोन बंद हो गया। एक झटका सा लगा। ...‘मैं विधाता’ हूँ। मैं चाहता हूँ वह जागे.... परन्तु वह सो रहा है फिर बताओ ‘मैं विधाता’ कैसा.....? यह विचार उसे अच्छा नहीं लगा। इसे विलुप्त करने के लिए वह एक लम्बा पैग बनाकर जल्दी से गटक गया। इस कमजोर ख्याल से दूर जाने के लिए उसने अपनी कॉपी को समीप खेंच लिया और लिखने का उपक्रम करने लगा।
आपको एक बार फिर याद दिला दूँ..... कहानी का अंतिम दृश्य लिखा जा रहा है। नायक अपनी प्रेमिका के विच्छोह में इतना दु:खी है कि इस संसार को त्यागना चाहता है अर्थात् आत्महत्या करना चाहता है।
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