ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
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समकालीन कहानी संग्रह
मैं विधाता
कभी-कभी घर में अकेले रहने का भी बड़ा सुख होता है, सब कुछ अपनी इच्छानुसार। चेंज के लिए लोग पहाड़ों पर जाते हैं, विदेश में जाते हैं, ऐसे ही अपने घर में कभी-कभी अकेला रहना भी बड़ा शकून देता है।
आज मेरे लिए वैसा ही स्वतन्त्रता दिवस है। पूरे घर में बिल्कुल अकेला। कई दिनों से एक कहानी का कथानक दिमाग पर बोझ सा बना हुआ है, जब तक यह कागजों पर अभिव्यक्त न हो जाएगा तब तक चैन से बैठने नहीं देगा। दोपहर में भी इसके लिए एक लम्बी बैठक की थी परन्तु कहानी का समापन नहीं किया। मैं इस रचना का अन्त जल्दबाजी मे नहीं करना चाहता था क्योंकि अंतिम बिंदु पाठक पर देर तक प्रभाव छोड़ता है। सायं तक और चिंतन मनन हो जाएगा इसलिए मैंने कहानी पूरी करने का विचार सायं तक के लिए स्थगित कर दिया था।
एक तो रचना पूरी होने का शकून दूसरा घर में अकेला रहने का आनंद। मैंने सायं ढलते ही खाने पीने की पूरी व्यवस्था करके रख ली।
कहानी के अन्त में नौजवान प्रेमी को अपनी प्रेमिका-विच्छोह के गम में मारना है जैसे हीर-रांझा, लैला-मजनूं, शिरी-फरीयाद..... कुछ कुछ ऐसे ही।
खाने पीने की व्यवस्था अपने समीप रखकर मैंने कहानी को पूरी करने के लिए कापी को खोला ही था कि अचानक मोबाइल की घंटी बज उठी। एकांत भंग हुआ तो मुझे कुछ अच्छा नहीं लगा। फोन को समीप लाकर देखा तो हरनाम का नाम लिखा था और किसी का होता तो शायद काट देता परन्तु हरनाम से आज प्रात: ही कहानी के विषय में लम्बी चर्चा हुई थी। शायद कोई अच्छा सुझाव मिल जाए यह सोचकर मैनें मोबाइल उठा लिया।
परिवार का, मित्रों का, काम काज का, स्वास्थ्य का हाल-चाल जानने के बाद, साहित्यिक चर्चा के अन्तर्गत उन्होंने मुझसे कहा - आप तो विधाता हो, विधाता.... अपने संसार की रचना करने वाले, अपने पात्रों का निर्माण करने वाले। पूर्व कर्मों, संस्कारों के अनुसार उनके भाग्य का निर्धारण करने वाले, सबकुछ आप ही तो हो रचनाकार महोदय। आप अपनी इच्छानुसार सभी पात्रों से काम कराते हो। आपके ही आदेशानुसार उन्हे जीना या मरना होता है....। कुछ और बातें होने के बाद मोबाइल बंद हो गया।
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