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ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस

तिरंगा हाउस

मधुकांत

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9728
आईएसबीएन :9781613016022

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समकालीन कहानी संग्रह

‘अशोक कुमार आज की कहानी कुछ समझ में आयी....’ रणधीर सिंह ने अपना आश्चर्य व्यक्त किया।

दस वर्ष पहले शर्मा जी का बेटा शहीद हुआ था। मुझे तो विश्वास ही नहीं आ रहा कि यह वही शर्मा जी हैं। बेटे का शरीर जब तिरंगे में लिपटा हुआ आया तब उनके चेहरे पर शिकन का नामोनिशान भी नहीं था। मिलने जुलने वाले विलाप करते आते, तो शर्मा खुद खड़ा होकर उसे गले लगाकर सान्त्वना देता- ‘रो मत भाई, भगवान ने दिया था, उसने वापस ले लिया- इसमें रोने-धोने की क्या बात है...। जब मैं उनके दुख में शरीक होने लगा तो मुझसे कहने लगे- ‘अशोक, आज या कल, मरना तो एक दिन सबको है, दीपक तो देश पर शहीद हुआ है, वह मरा नहीं.... हमें उसके लिए शोक नहीं गर्व प्रकट करना चाहिए। मैं क्या बोलता।

रणधीर सिंह को भी दस वर्ष पुरानी वह घटना एकदम ताजा हो गयी। तब तो हमने यही सोचा था असली मर्द है। जब उसको पता लगा दीपक की मां रोती रोती बेहोश हो गयी है तब अकेला औरतों में जा बैठा। अपनी गोद में पत्नी का सिर रखकर समझाने लगा ‘दीपक की माँ कुछ गम मत कर। एक दीपक बुझा है तेरे सामने सैकड़ों दीपक खड़े हैं ये सारे अपने बेटे तो हैं.... चाहे जिसको अपने सीने से लगा ले...।’ कितना समझदार लगा था उस दिन शर्मा जी।

शर्मा जी गुणी तो है भई। आने जाने वालों को रोने नहीं दिया। सुबह सायं प्रतिदिन दो घण्टे सत्संग करवाता, सबसे हंस-हंस कर बातें करता। सबने आश्चर्य तो तब किया जब तीन दिन बाद ही बैंक में डयूटी पर चला गया। ईश्वर सिंह बताते हुए गमगीन हो गया- मुझसे बोला ईश्वर सिंह दीपक मरा नहीं यहां का शरीर छोड़कर कहीं और चला गया। हमारा उसके साथ इतना ही साथ था..... ये क्या कम है......।

रणधीर बीच में बोल पड़ा.... वही शर्मा जी आज दीपक के लिए दहाड़ें मारकर कैसे रोने लगा......?

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