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तिरंगा हाउस

मधुकांत

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9728
आईएसबीएन :9781613016022

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समकालीन कहानी संग्रह

ईश्वर सिंह समझाने के लहजे में बोला- मुझे लगता है तब शर्मा जी ने अपने आपको पाषाण हृदय बना लिया था धीरे-धीरे दर्द जमता चला गया। यदि तब कुछ रोना धोना हो जाता तो पिंघल जाता और आंखों से बह जाता। तब तो कुछ हुआ नहीं आज हरिश्चन्द्र के बेटे का दु:ख देखकर उसे अपना दीपक याद आ गया।’

अशोक से भी न रुका गया- रणधीर सिंह कौन किस घटना को कब अपने दिल में ले लेता है कुछ नहीं मालूम। कितने लोग ऐसे हैं जो मरने पर दिखावा करते हैं अपने पड़ोस में है मास्टर ताराचंद। बीबी गुजरी तो सारा घर सिर पर उठा लिया। अर्थी से लिपट गया। भाग-भाग कर चिता में घुसने की कोशिश... बड़ी मुश्किल से पकड़कर रखा... एक सप्ताह बाद मालूम हुआ तो यकीन न हुआ दो बेटों के होते हुए भी उसने अपनी सगाई स्वीकार कर ली। बोलो मास्टर ताराचंद को क्या कहोगे...?

कुछ न कहो अशोक जी, संसार में अलग अलग चरित्र हैं। एक अजीब चरित्र हमारी पड़ोस में भी रहता है, रणधीर सिंह को भी कुछ याद आ गया- बंतो बुढ़िया रहती है हमारे पड़ोस में। हमने उसके पति को देखा है... दूध की डेयरी चलाता था, लम्बा तगड़ा मूंछोदार, सायं को हर रोज शराब पीता, किसी न किसी बात पर बंतो को पीटता। बंतो रोज पिट लेती परन्तु डरती नहीं थी। उसको अच्छा बुरा सुनाती रहती- मार खाती रहती। यह उनका प्रतिदिन का ड्रामा था इसलिए कोई उनके बीच में न पड़ता।

एक दिन बंतो का पति हार्ट अटैक से गुजर गया। वह छाती पीट-पीट कर चिल्लाने लगी... हाय मेरा संतो मुक गया, हुण मैनु कोण कुटेगा. कौन मारेगा, मैं किदी मार खांवागी. बतों रोती चीखती रहती, पास बैठी औरतें मुंह फेरकर हंसती रहती। पति की मार के अभाव में रोती बंतो एक वर्ष में ही अपने पति के पास चली गई...।

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