ई-पुस्तकें >> प्रेरक कहानियाँ प्रेरक कहानियाँकन्हैयालाल
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मनोरंजक और प्रेरणाप्रद बोध कथाएँ
9. मैं वृक्ष से बढ़कर हूँ
महाराज रणजीतसिंह कहीं जा रहे थे। उनके साथ में बहुत से अमीर-उमराव व अंग-रक्षक थे। इस सब काफिले के होते हुए भी अचानक एक मिट्टी का ढेला महाराज की कनपटी पर आकर लगा। सभी चौंक उठे! अंग-रक्षक स्तब्ध!! तुरन्त ढेले मारने वाले की खोज शुरू हो गई।
थोड़ी देर में सिपाही एक मरियल-सी बुढ़िया को पकड़ कर महाराज के सामने लाये। बुढ़िया भय से थर-थर काँप रही थी। बड़ी कठिनाई से कह पायी - 'मैं बे-कसूर हूँ, महाराज! मैं. तो अपने बच्चे की भूख मिटाने के लिए कुछ फल तोड़ना चाहती थी।'
महाराज ने बुढ़िया को सान्त्वना दी - 'घबराओ मत माँ! अपनी बात आराम से कहो।'
'महाराज! यही ढेला यदि अमरूद वाली डाली को लग जाता तो मैं अमरूद पा जाती, पर ढेला अमरूद की डाली को न लगकर आपको लग गया, मैं अपने किये की क्षमा चाहती हूँ।'
माँ, यदि तुम्हारा ढेला अमरूद को लगता तो तुम्हें अमरूद खाने को मिल जाता न?
'हाँ-महाराज!' बुढ़िया ने कहा।
'अब तो तुम्हारा ढेला रणजीत को लगा है, यह वृक्ष से गया-बीता नहीं है, तुम्हें और तुम्हारे बेटे को स्वादिष्ट सामग्री खाने को मिलेगी।'
बुढ़िया भौंचक्क ! अमीर-उमराव सन्न !! अंग-रक्षक हैरान !!!
तभी महाराज ने आज्ञा दी-'इस बुढ़िया को सालभर खाने-पीने योग्य सामान दिया जाय और एक हजार रुपये नकद!'
यह दूसरा आश्चर्य था। एक साथी ने तो पूछ ही लिया-'यह आप क्या कर रहे हैं, महाराज! अपराधी को सजा की बजाय पुरस्कार दे रहे हैं?'
'अरे भाई, जब निर्जीव पेड़ ढेला लगने पर मीठा फल देता है तो 'पंजाब-केशरी' को भी तो कुछ देना चाहिए।' यों कहकर महाराज मुस्कुराये!
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