ई-पुस्तकें >> प्रेरक कहानियाँ प्रेरक कहानियाँकन्हैयालाल
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मनोरंजक और प्रेरणाप्रद बोध कथाएँ
6. कर्त्तव्य-पालन
बात पुरानी है। समुद्र-मार्ग से नौका द्वारा विदेश-व्यापार करने वाला एक व्यापारी था। संयोग से उसे सदैव ही व्यापार में भारी लाभ होता रहा था। घाटा क्या होता है, वह उसने कभी जाना ही नहीं था।
अपने व्यापार से जब उसने विपुल सम्पदा इकट्ठी कर ली तो एक दिन उसके अभिन्न मित्र ने बातों-ही-बातों में उससे कहा-'बलभद्र! तुम दिन-रात समुद्र की गोदी में खेलते हो, तुम्हें तो तैरने की कला में अवश्य प्रवीण होना चाहिए, जबकि तुम बिल्कुल ही तैरना नहीं जानते हो।' 'बात आपकी सही है मित्र! किन्तु तैरना सीखने के लिए मेरे पास समय कहाँ? जितने दिन में तैरना सीखूँगा, उतने दिन में तो मैं लाखों के बारे-न्यारे कर लूँगा।'
'हूँ .... यदि ऐसा है, तो चमड़े के खाली घड़ों की एक हल्की नौका ही तैयार करके रख लो। भगवान न करे, कभी यात्रा के दौरान बुरा समय आ जाय तो वह नौका तुम्हारी मदद कर सकेगी।' मित्र का यह सुझाव सेठ बलभद्र को पसन्द आया। अगली यात्रा पर जाते समय वह ऐसी नौका तैयार कराकर अपने साथ ले भी गया। उस यात्रा में उसने पहले की सब यात्राओं से अधिक धन कमाया। प्रसन्नता में सराबोर होकर वह लौट रहा था।
अभी वह आधा सफर ही तय कर पाया था कि अचानक समुद्र में तूफान आ गया। नाविकों ने अपनी नौका को सन्तुलित बनाये रखने का बहुतेरा प्रयास किया, किन्तु वे सफल न हो सके।
अन्तत: वे पानी में छलाँग लगा गये। तब वीरभद्र को अपने घड़ों की नौका याद आयी।
हल्की नौका को समुद्र में छोड़ने के पूर्व वह सोचने लगा-'इस खेप में मूल्यवान रत्न कमाये हैं। अपने साथ कुछ रत्न अवश्य ले चलने चाहिए।' बस, तुरन्त उसने कुछ वजनदार थैलियों को उठाकर छोटी नौका में भर लिया और उसके बाद स्वयं भी उसमें चढ़ गया। पर भला उस हल्की-सी नौका की इतनी सामर्थ्य कहाँ थी, जो इतना भार सम्भालती। जैसे ही सेठ बलभद्र उसमें बैठा, वैसे ही वह लुढ़क-पुढुक हो गई।
सारे रत्नों को रत्नाकर के गर्भ में उतारने के बाद फिर नौका पानी के ऊपर ऊभर आई, किन्तु तब अपना कर्त्तव्य निभाने के कारण वह प्रसन्न-चित्त और प्रफुल्लित थी - बिल्कुल हल्की-फुल्की!
मनुष्य भले ही अपना कर्त्तव्य न निभाये, किन्तु प्रकृति भला अपना कर्त्तव्य-पालन भूल सकती है?
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