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पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710
आईएसबीएन :9781613014288

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


कहते-कहते उसके होंठ फूलकर कांपने लगे। उन्हें जोर से दबाते-दबाते तूफान की तरह कमरे से निकलकर चली गई।

अगली सुबह, न जाने क्या सोचकर अपूर्व थाने की ओर चल दिया। पुलिस में रिपोर्ट करना व्यर्थ है, यह वह जानता था। रुपए नहीं मिलेंगे - यही नहीं, हो सकता है कि चोर पकडें भी न जाएं। लेकिन उस ईसाई लड़की पर उसके क्रोध और विद्वेष की सीमा नहीं थी। भारती ने स्वयं चोरी की है या चोरी करने में सहायता की है - इस विषय में तिवारी की तरह वह अभी तक निश्चिंत नहीं हो सका था। लेकिन उसकी दुष्टता तथा छल ने उसे बुरी तरह विचलित कर दिया था। उस लड़की की गतिविधि का रहस्य खोजने पर भी उसे नहीं मिला। उसने जो कुछ हानि की है उसके लिए उतना नहीं, लेकिन आरम्भ से उसका विचित्र आचरण जैसे निरंतर अपूर्व की बुद्धि का उपहास करता रहा है।

उसने अभी थाने में कदम भी नहीं रखा था कि पीछे से पुकार आई, “अरे अपूर्व! तुम यहां कहां?”

अपूर्व ने घूमकर देखा-निमाई बाबू खड़े हैं। आप बंगाल पुलिस के बहुत बड़े अफसर हैं। अपूर्व के पिता ने इनकी नौकरी लगाई थी। निमाई बाबू उनको दादा कहकर पुकारते थे और इसी संबंध के कारण अपूर्व के घर के सभी लोग उन्हें चाचा कहते थे। स्वदेशी आंदोलन के समय गिरफ्तार होने के बाद अपूर्व को जो किसी प्रकार का कष्ट नहीं सहना पड़ा था, उसका बहुत कुछ श्रेय इन्हीं को था। अपूर्व ने प्रणाम करके, अपनी नौकरी की बात बताकर पूछा, “लेकिन आप इस देश में कैसे?”

निमाई बाबू ने आशीर्वाद देते हुए कहा, “बेटा, तुम तो अभी कल के हो। जब तुम्हें घर-द्वार छोड़कर इतनी दूर आना पड़ा है तो क्या मैं नहीं आ सकता? लेकिन मेरे पास समय नहीं है। तुम्हें तो ऑफिस जाने में अभी देर है। आओ, चलते-चलते ही दो बातें कर लूंगा। मां अच्छी है न? और भाई भी?”

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