ई-पुस्तकें >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
उसके चेहरे के इस आकस्मिक परिवर्तन को भारती ने लक्ष्य किया लेकिन कारण न समझ सकी। बोली, “मेरी बातों का आपने उत्तर नहीं दिया?”
अपूर्व ने कहा, “और क्या उत्तर दूं? चोर को बढ़ावा नहीं देना चाहिए। पुलिस को खबर देना ही ठीक होगा।”
भारती भयभीत होकर बोली, “यह कैसी बात? न तो चोर ही पकड़ा जाएगा और न रुपए ही मिलेंगे। बीच में मुझे लेकर खींचा-तानी होगी। मैंने देखा है, ताला बंद किया है। सभी सजाकर रखा है। मैं विपत्ति में पड़ जाऊंगी।”
अपूर्व ने कहा, “जो कुछ हुआ है, आप वही कह दीजिएगा।”
भारती ने व्याकुल होकर कहा, “कहने से क्या होगा? अभी उस दिन आपके साथ इतना बड़ा अन्याय हो गया। एक-दूसरे से परिचय नहीं। बात-चीत नहीं। इसी बीच अचानक आपके लिए दिल में इतना दर्द क्यों है? पुलिस कैसे विश्वास करेगी?”
अपूर्व का मन और भी संदेह से भर उठा। बोला, “आपकी आरम्भ से अंत तक की झूठी बातों पर तो पुलिस ने विश्वास कर लिया और सच्ची बातों का विश्वास नहीं करेगी? रुपया तो थोड़ा ही गया, लेकिन चोर को बिना दंड दिलाए न छोड़ूंगा।”
भारती बुद्धिहीन की तरह उसे देखती रही। फिर बोली, “आप क्या कहते हैं अपूर्व बाबू? पिता जी अच्छे व्यक्ति नहीं हैं। उन्होंने आपके प्रति बहुत बड़ा अन्याय किया है। मैंने इसमें जो कुछ सहायता की है, उसे भी मैं जानती हूं। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं आपके कमरे में घुसकर, ताला तोड़कर रुपए चुराऊंगी। ऐसी बात आप सोच सकते हैं, लेकिन मैं नहीं सोच सकती। ऐसी बदनामी होने पर मैं बचूंगी कैसे?”
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