ई-पुस्तकें >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
भारती बोली, “आपने दिया क्यों? उस रुपए को मैं कम नहीं करूंगी। पूरे दो सौ अस्सी रुपए चोरी गए हैं।”
“नहीं-दो सौ साठ।”
“नहीं, दो सौ अस्सी रुपए।”
अपूर्व ने विवाद नहीं किया। इस लड़की की प्रखर बुद्धि तथा अद्भुत तीक्ष्ण बुद्धि देखकर वह चकित रह गया।
अपूर्व ने पूछा, “पुलिस में खबर देना क्या ठीक होगा?”
भारती बोली, “क्यों नहीं? ठीक केवल इसलिए होगा कि उससे मेरी काफी खींचातानी होगी। वह आकर आपके रुपए दे जाएंगे-ऐसी तो आशा है नहीं।”
अपूर्व मौन रहा।
भारती बोली, “चोरी तो हो गई। अब अगर वह लोग आएंगे तो अपमान भी आरम्भ हो जाएगा।”
“लेकिन कानून तो है?”
“कानून तो है। लेकिन मैं किसी भी दशा में यह नहीं करने दूंगी। कानून उस दिन भी था जिस दिन आप अकारण जुर्माना दे आए थे।”
अपूर्व बोला, “लोग अगर झूठ बोलें और झूठे मामले को सिद्ध करें तो इसमें कानून का क्या दोष है?”
भारती लज्जित-सी हो गई। बोली, “लोग झूठ न बोलेंगे, झूठे मामले न चलाएंगे तभी जाकर कानून निर्दोष होगा-क्या आपका मत यही है? अगर ऐसा हो तो ठीक ही है। लेकिन संसार में ऐसा होता नहीं।” इतना कहकर वह हंस पड़ी। लेकिन अपूर्व मौन रहा। भारती का यह चोरी छिपाने का आग्रह, इस समय उसे अच्छा नहीं लगा। किसी गुप्त षडयंत्र की आशंका से उसका अंत:करण देखते-ही-देखते कलुषित हो उठा। उस दिन उसका डरते हुए संकोच सहित फल-फूल देने के लिए आना....उसके बाद घटनाओं को विकृत तथा मिथ्या बनाकर कहना, न्यायालय में गवाही देना....पल में सारा इतिहास, बिजली की भांति चमक उठा। चेहरा गम्भीर और कंठ-स्वर भारी हो उठा। यह अभिनय है, छलना है।
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