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परसाई के राजनीतिक व्यंग्य

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :296
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9709
आईएसबीएन :9781613014189

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राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।

ऐसा गर्व कर सकते हैं। मगर अपने देश में देखें। क्या हाल हैं, कर्मकांड और पांखड के। मंदिर तक तो ठीक नहीं रखते। डाक्टर राम मनोहर लोहिया ने कहा था - मैं तो नास्तिक हूँ। फिर भी मंदिरों की हालत देखकर दुखी हूँ। लोगों को मदिरों को स्वच्छ रखना चाहिए।

भारतीयों के मन पर विदेशियों द्वारा हमारे कृष्ण की भक्ति पर विभिन्न प्रतिक्रियाएँ होती हैं। अतिप्राचीनकाल में कोई कुंठा नहीं रही, संघर्ष रहा, पर आनंद भी रहा। योग और भोग साथ चले। इसके बाद धर्म में कर्मकांडों की भरमार पुरोहित वर्ग ने कर दी। खूब शोषण चल रहा है, तब से श्रद्धालुओं का। फिर विभिन्न जातियाँ, विभिन्न धर्म लेकर आईं। समन्वय हुआ। फिर गिरावट आई। एक प्राफेट (पैगंबर) ईसा सरीखा और सर्वकालिक पवित्र ग्रंथ 'दि होली बाईबिल' सरीखा प्राचीन भारत में कोई नहीं रहा। सबसे अधिक अवतार पूजे जाते हैं-विष्णु के। शंकर के अवतार नहीं है, पर वे खूब पूजे जाते हैं। तैंतीस करोड़ देवता बताए गए हैं, किसी एक देवता पर कब्जा करके बैठ सकते हैं।

फिर हीनता के वर्षो में जब ब्रिटिश साम्राज्यवाद सारा गर्व चूर्ण कर रहा था, तब भारतीय मन यह कहकर संतोष करता था कि कुछ भी कहो हमारे जैसा दर्शन, ज्ञान, संस्कृति, काव्य कहीं नहीं है। वेदों के अनुवाद आगे बढ़े हुए पश्चिम में हो रहे हैं। और देखो मैक्समुलर ने क्या तारीफ की है। जर्मनी में शिवभक्त हैं, और फ्रांस की एक गुफा में राधाकृष्ण की मूर्ति मिली हे। संपन्न जाति को, और जो शायद अठारहवीं सदी तक दुनिया में सबसे आगे थी, जब साम्राज्यवादियों ने लूटकर हीन बनाया, यूरोपीय जीवन पद्धति को सबसे उत्तम बताया, तब दबा हुआ भारतीय मन इस दावे से जीवित रहा कि क्या तुम्हारे यहाँ वेद हैं? उपनिषद् हैं? मनमोहन कृष्ण हैं? मर्यादा पुरुषोत्तम राम हैं? अरे देवता तो सब इस पवित्र भूमि पर 'अवतार' लेते हैं। इस गर्व ने एक ओर जहाँ मन को जीवित रखा वहीं आत्मलुब्धता ने अकर्मण्य भी बनाया।

औसत भारतीय मन जो अभी भी पश्चिमी गोरों का रौब मानता है, प्रफुल्ल होकर कहता है- 'पहुँच गए हमारे कृष्ण अमेरिका होते हुए समाजवादी रूस। पूंजीवादी पर तो हावी थे ही, समाजवादी देश पर भी हावी हो गए। किधर गए मार्क्स? कहाँ गई उनकी नास्तिकता।‘

कृष्ण का पहुँचना समाजवाद का नाश नहीं, उसे प्रोत्साहन है। कृष्ण के चरित्र में समाजवाद के तत्व हैं। गोकुल में पूजा बंद करवाते हैं - यानी एकाधिकार को नष्ट करते हैं। गोकुल का मक्खन, दही मथुरा नहीं जाने देते। यह कोई न्याय है कि मथुरा के बड़े लोग मक्खन खाएँ और गोकुल के गरीब ग्रामीण उससे वचित रहें। हमेशा कृष्ण ने वंचितों का साथ दिया। हमेशा उनके पक्षधर रहे जिनका अधिकार छीन लिया गया है। अत्याचारी का नाश किया और करवाया। नंददास का 'सुदामा चरित' कितना मार्मिक है। मार्क्सवादी कृष्ण को अपने पक्ष में ले सकते हैं।

पर फिर वही धर्म की बात उठेगी? धर्म जड़ हष्टि देता है भाग्यवादी और अकर्मण्य बनाता है। धर्म मूल अच्छे तत्व छोड़कर कर्मकांड का रूप ले लेता है! जनता को शोषण के लिए तैयार करता है। शोषक के हाथ में धर्म हथियार है ?

मगर साम्यवादी पार्टी के संस्थापकों में एक मौलाना हसरत मोहानी हज भी करते थे और साम्यवादी भी थे। निकारागुआ का कवि और मंत्री जो दो बार भारत आ चुका है पादरी भी है। वह कहता है धर्म और समाजवाद में कोई टकराव नहीं है।

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