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परसाई के राजनीतिक व्यंग्य

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :296
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9709
आईएसबीएन :9781613014189

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राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।

बहुत पहले ब्रिटेन के केंटरबरी चर्च के बिशप डा. जान्सन थे, जो साम्यवादी थे। वे 'रेड डीन' कहलाते थे। उनकी मुलाकात स्टालिन से भी हुई थी।

इन 'कृष्ण कांशसनेस'वालों पर देव आनंद ने एक फिल्म बनाई थी। इसका एक गीत लोकप्रिय हुआ- 'दम मारो दम, मिट जाए गम, बोलो सुबह शाम, हरे कृष्ण हरे राम'। फिल्म का निष्कर्ष यह था कि भारतीयों को विदेश से आए ये कृष्ण भक्त पंसद नहीं है। उन्हें स्वीकार नहीं किया गया है। वे सी.आई.ए. एजेंट कहलाते हैं। वे भगोड़े, पलायनवादी, नशैलची, गैर-जिम्मेदार हैं, ऐसा माना जाता है। भारत में उनका एक अड्डा बंबई में है और एक कृष्णनगर बंगाल में। वे एकांतिक रहस्यमय जिंदगी जीते हैं। कभी-कभी वाद्य यंत्र बजाते-गाते सड़को पर निकलते हैं। तब वे कौतूहल के केंद्र होते हैं। नशे की बात तो ऐसी है हमारे यहाँ के शिवभक्त भी गाँजा, भांग, धतूरे का सेवन करते हैं।

मूल सवाल यह है कि समाजवाद से धर्म की कैसी निभती है। रूस में जो हो रहा है, उससे लगता है, वहाँ धर्म कभी खत्म नहीं हुआ। धर्म दबा और दबाया गया। अब स्वतंत्रता मिली है तो चर्चों और मस्जिदों में भीड़ है। सामूहिक प्रार्थनाएँ और उत्सव हो रहे हैं। बहुत साल पहले जब मैं रूस गया तो वहाँ देखा कि चर्च और मस्जिदें स्मारक, स्थापत्यकला, चित्रकला के नमूने हैं। हमें ईसाबेला चर्च दिखाया गया। पूरी गोल छत पर सुंदर चित्रकारी थी। ताशकंद में भव्य मस्जिद देखी। एक तरुण उजबेक से पूछा - क्या तुम मस्जिद जाते हो? उसने जवाब दिया - नहीं जाता, ये मस्जिदें, बूढ़े आदमियों के क्लब है। वे जाते हैं, नमाज पढ़ते हैं, घंटों पुरानी यादें करते है, सुख-दुख की बातें करते हैं। पर अब मस्जिदें और चर्च भरे हुए हैं।

किसी अलौकिक परम सत्ता के अस्तित्व और उसमें आस्था मनुष्य के मन में गहरे धँसी होती है? यह सही है? इस परम सत्ता को मनुष्य अपनी आखिरी अदालत मानता है; इस परम सत्ता से मनुष्य दया और मंगल की अपेक्षा करता है। फिर इस सत्ता के रूप बनते हैं प्रार्थनाएँ बनती हैं। आराधना विधि बनती है। पुरोहित वर्ग प्रकट होता है। कर्मकांड बनते हैं। संप्रदाय बनते हैं। आपस में शत्रु भाव पैदा होता है झगड़े होते हैं। दंगे होते हैं। मजे की बात यह है कि डाकू भी उसी भगवान का आशीर्वाद माँगकर डाका डालने जाते हैं जिसका आर्शीवाद लेकर आदमी परोपकार करने जाता है।

बहरहाल रूस में पादरियों और समाजवाद के सिद्धान्तशास्त्रियों में चर्चा हुई और वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि हमारे उद्देश्य एक हैं। सवाल अहम है-कि सामाजिक परिवर्तन के काम में धर्म का उपयोग हो सकता है? अगर नहीं तो क्या धर्म यथास्थिति की ही रक्षा करेगा? बात बहुत विचारणीय है क्योंकि धर्म एक बड़ी शक्ति है और सामाजिक परिवर्तन की आकांक्षा भी बलवती है।

भारतीय गतिशील चिंतकों को भी इस पर बहुत विचार करना चाहिए। यह भी देखा गया है कि लोग नारे के लिए कार्ल मार्क्स का एक वाक्य ले उड़ते हैं - धर्म अवाम के लिए अफीम है! मगर इसके ऊपर मार्क्स ने लिखा है - धर्म आत्महीन दुनिया में आत्मा की पुकार है। धर्म भ्रमात्मक सुख देता है जबकि मनुष्य को वास्तविक सुख चाहिए जो सामाजिक परिवर्तन से आता है।

मैंने यह बात विचारार्थ इसलिए उठाई कि एक समाजवादी समाज में जो धर्महीन माना जाता है, यह धर्मोत्थान क्यों हो रहा है? और समाजवादी मनीषी इसका क्यों समर्थन कर रहे हैं।

जहाँ तक 'हरे राम हरे कृष्ण' वालों का सवाल है, एक नाटक है, जिसका कोई सामाजिक प्रभाव नहीं है। हाँ, 'कृष्ण चेतना' पर बहुत सी सामग्री छपकर बँटती है।


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