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परसाई के राजनीतिक व्यंग्य

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :296
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9709
आईएसबीएन :9781613014189

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राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।

अब एक मजा और है। अपना सन्नाटा हम शहर के सन्नाटे से जोड़ देते हैं। शहर तो लेखक के व्यक्तित्व का प्रक्षेपण है। साहित्यकार शहर में कर्फ्यू लागू कर दे, तो सन्नाटा हो जाय। इस मुगालते में जीना कितना सुखद है कि शहर मेरे भीतर है। मैं जब काफी हाऊस में किसी की कविता को घटिया कहता हूँ तब मेरे जेब में पड़ा शहर सुनता रहता है। शहर बोलना चाहता है पर मैं उसे चुप कर देता हूँ। सन्नाटा है न! शहर से कुल मतलब लेखक का यह है कि वह उसमें किराए के मकान में रहता है। अनुभव भी किराए से मिलते हैं। मुझे भी यह बड़ा सुखद अहसास होता है कि जो मेरे भीतर हो रहा है, सिर्फ वही शहर में हो रहा है। मुझे शहर को देखने की जरूरत नहीं है। शहर के बारे में मेरे अंदाज हमेशा सही रहे हैं।

एक और बड़ा सुखदायक भ्रम मैं और लोगों के साथ पालता हूँ। यह भ्रम है कि साहित्य से ही सब कुछ होता है- खासकर मेरे साहित्य से। दिल्ली में अस्पताल में था, जब सन्नाटा चल रहा था। लेखक बंधु 3-4 दिन बड़े तनाव में थे। मुझसे मिलने आते तो कहते - सुना आपने। अमुक जो आलोचक हैं उन्होंने कह दिया कि फलाँ की कहानियाँ - कहानियाँ ही नहीं हैं। बताइए भला। क्या अँधेरा है। दूसरे गुटवाले कहते - ठीक कहा है। जो उन्हें कहानियाँ कहता है, वह बेवकूफ है। वे कहानियाँ नहीं, घटिया गद्य के नमूने हैं।

अब मैं तो अस्पताल छोड़कर बाहर जा नहीं सकता था। लेखक बंधु ही मेरे पास आते थे। बड़े उत्तेजित, गुस्से में। बड़े तनाव के दिन थे वे। बड़ा तूफान खड़ा हो गया था। मुझे शहर की चिंता थी। मैंने दिल्ली के ही एक गैर साहित्यिक सज्जन से पूछा - शहर में शांति तो है न! कहीं दंगा फसाद तो नहीं हो रहा है? उन्होंने कहा - नहीं, कहीं कुछ नहीं है। बिलकुल शांति है। आपसे किसने कहा कि कुछ गडबड है? मैंने कहा - मेरा ऐसा अंदाज था कि शहर में सब जगह दंगा फसाद हो रहे होंगे। बात यह है कि एक लेखक की कहानियों को लेकर बड़ा उत्तेजक वातावरण बन गया है। वे सज्जन जोर से हँसे। कहने लगे - आपके डाक्टर को बुलाऊँ क्या? पड़े-पड़े दिमाग में कुछ गड़बड़ तो नहीं पैदा हो गई? कहानी के विवाद से कहीं दंगा होता है!

उन सज्जन ने मेरे अहंकार को झटका दिया। हमारे किए शहर में कुछ ही नहीं होता। सन्नाटा तोड़ने की कोशिश बेकार गई। मैं तो यह समझता हूँ कि दुनिया एक बंदरिया है। जिसे हम कंधे पर बिठाकर टी हाऊस की कुर्सी पर बैठते हैं। एक कंधा दुखने लगता है तो बंदरिया को दूसरे कंधे पर रख लेते हैं। कहते हैं - क्यों बंदरिया, सन्नाटे में है? ले बिस्कुट खा ले।


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