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परसाई के राजनीतिक व्यंग्य

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :296
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9709
आईएसबीएन :9781613014189

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राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।

मेरे इस बेचारे बंधु को दिल्ली का इन्फेक्शन लग गया।

हम छोटे शहरवालों को पहले इलाहाबाद का इन्फेक्शन लगता था- संगम है, तीर्थ राज। सुनते थे प्रयाग में किसी लेखक ने गंगा के पानी से कुल्ला कर दिया है तो हम इधर नर्मदा में नहा लेते थे। पर त्रिवेणी अब दिल्ली शिफ्ट हो गई। गंगा की एक दो धाराएँ बंबई भी चली गईं। कुछ नाले दूसरी जगह जाकर नदी बन गए। सुना है प्रयाग की सफाई नालियों की भी कुछ महत्वाकांक्षा है। तो साहित्य का तीर्थराज दिल्ली चला गया। गंगा, यमुना तो गईं, पर सरस्वती ने मना कर दिया। सरस्वती विहीन तीर्थराज दिल्ली पहुँच गया। यों तो प्रयाग में भी सरस्वती 'अंडरग्राउंड' ही रही है। पंडों के डर से।

तो अब इन्फेक्शन दिल्ली से मिलता है। सुनते हैं दिल्ली में दो लेखकों में गाली-गलौज हो गई तो हम फौरन जूता उठाकर शहर में किसी लेखक की तलाश में निकल पड़ते हैं।

मेरा कर्त्तव्य है कि मैं सन्नाटा तोडूँ। पर कैसे? मेरी टाँग में अब दर्द नहीं है। चीख नहीं सकता। मैं जानता हूँ हड्डी जुड़वाकर मैंने साहित्य का बड़ा अहित किया है। यों मैं कुछ करना चाहता हूँ। कुछ शोर हो। एक पत्रिका निकलती है। मुझे पत्रिका पसंद है पर उसका निकलना मुझे पसंद नहीं है। पत्रिका भी पसंद इसलिए है कि उसमें जो छपता है वह मेरी समझ में नहीं आता। इस पत्रिका पर भौंकने के लिए कुत्तों की भरती हो रही है। काफी तो भरती हो चुके और भौंक भी रहे हैं। क्या मैं भी भरती के लिए अर्जी दूँ? सोचता हूँ किसी का पट्टा गले में डाल लूँ। या हैसियत हो तो खुद पट्टे खरीदकर कुछ कुत्तों के गले में डाल दूँ और  'छू कर दूँ।

मैंने बताया कि इस तरह के कामों से सन्नाटा मिटता है। कोई झगड़ा हो, कोई टाँग खींच का खेल हो, प्रतिभा हनन हो, निंदा गोष्ठी हो, अभियान हो-तो सन्नाटा मिटता है। साहित्य चिंतन और साहित्य सृजन से कोई सनसनी नहीं फैलती। कुछ लोग कहते हैं कि आपातकाल से साहित्य में सन्नाटा आया है। पर आपातकाल में बाकी सब तो चालू रहा है। हत्या होती है, अपहरण होता है, चोरी होती है, गाली-गलौज होता है। आपातकाल में ही मेरे मुहल्ले की एक पतिव्रता भगाई गई। इससे मुहल्ले का ही नहीं, शहर का सन्नाटा मिट गया। हर चौराहे पर पान के ठेले पर यही चर्चा थी। ऐसा लगता था जैसे किसी क्रांतिकारी महाकाव्य की रचना हो गई हो। सीताहरण के बाद दूसरी उतनी ही बड़ी घटना हुई यह। राम रावण युद्ध तो अदालत में हो रहा है। हर पेशी एक सनसनीखेज अध्याय है। ऐसा कुछ साहित्यवाले भी क्यों नहीं कर डालते?

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