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परसाई के राजनीतिक व्यंग्य

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :296
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9709
आईएसबीएन :9781613014189

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राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।


सन्नाटा बोलता है


एक बंधु परेशान आए थे। साहित्यिक हैं। परेशानी साहित्य की कसरत है। जब देखते हैं, ढीले हो रहे हैं, परेशानी के दंड पेल लेते हैं। माँसपेशियाँ कस जाती हैं।

वे कहने लगे - देखिए, साहित्य में बड़ा सन्नाटा है। मैंने कहा - सन्नाटा है तो सो जाओ। नींद नहीं आती हो तो चोरी करो। सन्नाटे में ये दो ही काम तो होते हैं।

उन्हें संतोष नहीं हुआ वे परेशान ही रहे। उनकी परेशानी की कसरत पूरी नहीं हुई थी। 20-25 दंड कम पड़ते थे।

तभी कुत्ता भौंका। मैंने कहा - सन्नाटा कहाँ है? कुत्ते तो भौंक रहे हैं। साहित्य में जब सन्नाटा आता है, तब कुत्ते भौंक कर उसे दूर करते हैं। या साहित्य की बस्ती में कोई अजनबी घुसता है तब भी कुत्ते भौंकते हैं। साहित्य में दो तरह के लोग होते हैं - रचना करनेवाले और भौंकनेवाले। साहित्य के लिए दोनों जरूरी हैं। रचनाकारों को भौंकनेवालों की जरूरत है वरना स्तर गिर जाएगा। आचार्यगण जो एक दूसरे के विश्वविद्यालय पर कुत्ते छोड़ते हैं इस विषय पर शोध क्यों नहीं करवाते - 'साहित्य रचना में श्वान-कर्म का योगदान। शोध यहाँ से शुरू कर सकते हैं - युधिष्ठिर हिमालय पर अपने साथ कुत्ता ही क्यों ले गए? घोड़ा या हाथी क्यों नहीं ले गए? उस कुत्ते का महाभारत की साहित्यिक गतिविधियों में क्या हाथ है?

मेरे साहित्यिक बंधु की परेशानी मिटी नहीं। मुझे समझ में आ गया। उन्हें सन्नाटे का 'इन्फेक्शन' लग गया है - वही जो फीचर है न सन्नाटा साहित्य में या शहर में? शायद दिल्ली से यह 'इन्फेक्शन लगा है। पर मैं तो तीन महीने दिल्ली में रहा, जब वहाँ साहित्य में सन्नाटा चल रहा था। मुझे तो इन्फेक्शन नहीं लगा। मुझे पेनिसिलिन और टेरामाइसिन दिए जा रहे थे। फिर मैं दिल्ली का सन्नाटा खुद तोड़ रहा था। मेरी टाँग की हड्डी टूट गई थी। और मैं चीखता था। इससे साहित्य का सन्नाटा मिटता था। किसी शहर के साहित्य में अगर सन्नाटा आ जाए तो किसी लेखक की टाँग तोड़ दी जाए। उसकी चीख से सन्नाटा मिट जाएगा। हिंदी का इतिहास है कि जब-जब किसी लेखक या गुट की टाँग टूटी है, सन्नाटा मिटा है। यह भी मालूम होगा कि ऊपर से फिसलकर-सड़क पर पड़े बड़े-बड़े पत्थर ही शोर करते हैं गतिरोध हो गया। अब गूँगे शिकायत करते हैं, कि सन्नाटा है। वे नहीं बोल रहे तो कोई नहीं बोल रहा। बहरे को दूसरों की आवाज सुनाई नहीं देती, अपनी भी नहीं। उसके अपने ओंठ जब तक न हिले। उसे लगता है सन्नाटा है। अब कहीं किसी के ओंठ नहीं हिल रहे हैं (दाढ़ में दर्द होगा) तो वह सोचता है कि सर्वत्र सन्नाटा है। मैं नहीं बोल रहा हूँ तो कोई नहीं बोल रहा।

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