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परसाई के राजनीतिक व्यंग्य

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :296
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9709
आईएसबीएन :9781613014189

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राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।

लोकतंत्र में दलों के सिद्धांत और कार्यक्रम होते हैं, इनके आधार पर वे चुनाव लड़ते हैं और उद्देश्यों को पूरा करने की कोशिश करते हैं। अब हो यह गया कि सिद्धांत वगैरह की बात व्यर्थ हो गई। आज इस दल में हैं कल उसमें चले जाएँगे। आयाराम गयाराम होने लगा। कारण ये था कि जनसेवा और लोकतांत्रिक मूल्य भूले जा चुके थे। पद पैसा और गरिमा प्रमुख हो गए थे।

राजीव गाँधी ने अपनी पार्टी की सुरक्षा के लिए दलबदल विरोध कानून बनाया। मगर इस कानून में छेद है। इसमें से निकलकर दूसरे दल में घुसा जा सकता है। अजितसिंह ने इसी छेद का उपयोग किया। इतने दल, उनके छोटे-छोटे टुकड़े, नेताओं के आसपास पार्टी, सिद्धांतहीन राजनीति- इसमें कौन विधायक कहाँ है पता लगाना मुश्किल है। मनुष्य जब इस देश में पैसे में तब्दील हो गया तब विधायकों पर असर होना ही था। सबसे मजे की बात ये है कि जो नगण्य माने जाते हैं वे सबसे कीमती हो गए। जो घोड़ा बँधा है वह तो मालिक की मर्जी के बिना भाग नहीं सकता, जो घोड़ा छुट्टा खड़ा है वह किसी को भी पीठ पर सवार बनाकर भाग जाएगा। अक्सर मौके आते हैं कि किसी दल को बहुमत बनाने में कुछ विधायक कम पड़ते हैं। दूसरे दल के विधायक आ नहीं सकते, क्योंकि कानूनी रोक है। मगर वो देखो मैदान में पाँच सात पट्ठे खड़े हैं विधानसभा के सामने। कह रहे हैं - कोई हमारा नेता नहीं, कोई मालिक नहीं। कोई कानून हमें नहीं बाँधता, हम कोई नियम नहीं मानते, हम बिलकुल छुट्टे हैं, आओ हमें खरीदो, जो अच्छे दाम देगा हम उसके हो जाएँगे। खरीद में क्या मिलता होगा। स्पष्ट है बहुत सा पैसा या मंत्रिमंडल में सदस्यता। अगर खबर सही है कि एक पार्टी से निकलकर स्वतंत्र विधायक बने लोग बिक गए तो चिंता की बात है। पैसा सब कुछ खरीद लेगा, गणतंत्र भी खरीद लेगा, लोकतांत्रिक व्यवस्था भी खरीद लेगा, सारी नैतिकता खरीद लेगा।


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