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परसाई के राजनीतिक व्यंग्य

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :296
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9709
आईएसबीएन :9781613014189

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राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।

फिर बड़े वकील हैं, कानूनविद हैं, परम विद्वान हैं, स्वतंत्र विचार के हैं। इनमें कोई सोचता है कि विधानसभा या संसद में पहुँच गया तो कुछ अपने विचार वहाँ रखूँगा। दूसरे वे होते हैं जो विधायकी को अँगूठी की तरह पहनना चाहते हैं। सब तरह बड़े हैं। विधायक हो जाएँ तो और चमक उठें। ये ऐसे विधायक हैं जो केवल शोभा बढ़ाते हैं। विधानसभा में कुछ बोलते नहीं, जन समस्याओं से कोई मतलब नहीं। जाते हैं, सदन में बैठते हैं फिर बीच-बीच में में कैंटीन जाते हैं। कैंटीन में अच्छा और कम दाम का भोजन मिलता है, उसे खाते हैं और विश्रामकक्ष में गद्दे पर आराम फरमाते हैं। क्षेत्र की समस्या से इन्हें कोई मतलब नहीं। कैंटीन की बात निकली तो एक दिलचस्प बात याद आई। स्वर्गीय कवि सोमदत्त वेटनरी विभाग में ऊँचे अफसर थे। वह आए और कहने लगे - कल सागर जाऊँगा, बहुत गलती हमारे विभाग से हो गई। सागर और उसके आसपास काला मुर्गा होता है जो विशेष स्वादिष्ट माना जाता है। वहाँ से कुछ काले मुर्गे विधानसभा कैंटीन में आ गए, उन्हें माननीयों ने खाया और उनकी माँग बढ़ने लगी। मेरी नाक में दम है, इतने दबाव मुझ पर पड़ते हैं विधानसभा में कि काले मुर्गे कैंटीन में बुलवाइए। यही मेरा काम हो गया है कि काले मुर्गे खोजता फिरूँ। मेरा ख्याल है कि अभी तक वहाँ के सारे काले मुर्गे खा लिए गए होंगे। फिर भी देखता हूँ क्योंकि सोमवार को फिर मुझ पर दबाव पड़ेगा कि काले मुर्गे बुलाओ। ऐसे रुचिसंपन्न जन विधायक हो जाते हैं जिनके लिए राज्य की सबसे बड़ी समस्या काला मुर्गा प्राप्त करना है।

यों भी एक विधायक को काफी रुपए मिलते हैं। मासिक वेतन और दैनिक भत्ते के सिवा दूसरे जरियों से भी बहुत पैसा मिल जाता है। फिर वह अपना काम भी कराता है। हमारे संसदीय तंत्र में प्रारंभिक कुछ समय को छोड़कर बेहिसाब पैसा सफेद और काला आने लगा। चुनाव में लगातार खर्च की रकम बढ़ती गई। काले धनवालों ने विधायकी पर कब्जा कर लिया फिर उद्योगपतियों का दखल बढ़ता गया। आज हालत है कि सुनता हूँ एक सीट के लिए एक उम्मीदवार एक करोड़ रुपया तक खर्च करता है। ये एक करोड़ कहाँ से आता है। वह निश्चित ही काला पैसा है या उद्योगपतियों का पैसा है या व्यापारी वर्ग का पैसा है। ये लोग विधायक बनाने के लिए देंगे तो वसूल भी करेंगे। साधारण हैसियत का विधायक जब करोड़ रुपए खर्च करता है तब लगता है कि लोकतंत्र, नैतिकता और मनुष्यता तक रुपए में तब्दील हो गई। जो करोड़ खर्च करेगा वह पाँच करोड़ कहीं से निकालेगा ही। इस तरह जनसेवकों का व्यापार और लूट एक साथ होगी।

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