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परसाई के राजनीतिक व्यंग्य

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :296
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9709
आईएसबीएन :9781613014189

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राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।

1952 के पहले चुनाव में, वे लोग चुनाव लड़े थे जो स्वाधीनता का संग्राम लड़े थे। उनका शिक्षण था गाँधीजी के द्वारा। वे कुछ नैतिक मूल्यों को मानते थे। ऐसा नहीं है कि सब आदर्श ही थे। तब भी कांग्रेस ने लगभग पूरे देश पर शासन जमाया। पर कुछ व्यक्ति जो सामान्य भी और ऊँचे स्तर के भी थे निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़े। इनमें बड़े वकील थे तो साधारण कार्यकर्ता भी, जनसेवक भी बिना कुछ खर्च किए अपनी सेवा की दर पर चुनकर आ गए थे। पर तब विधायकों को खरीदने या विधायकों के बिकने की बात नहीं उठती थी। विधायक बिकेगा तो कीमत लेगा। कीमत लाखों में भी हो सकती हैं और सुनते हैं आजकल करोड़ों में है। फिर दूसरी पार्टियाँ बनीं सत्ता के लिए होड़ आई और तब दलबदल की बात चालू हुई। इस दलबदल की प्रवृत्ति ने सारी सरकारों को अस्थिर कर दिया तब कानून बना दलबदल के विरुद्ध। पर उसमें भी गुंजाइश है। अजित सिंह अपने साथियों को लेकर कांग्रेस में चले गए, इसी कानून के तहत।

निर्दलीय विधायक तरह-तरह के मैंने देखे हैं। गंभीरता से विधायिका में आकर काम करने की इच्छावाले भी और चुनाव को मखौल माननेवाले भी। बड़े-बड़े सेठ, बड़े-बड़े वकील, रईस विधायकी को भी अपनी अंगूठी में जड़ लेना चाहते थे। रईस तो हैं ही विधायक भी हैं। यह आभूषण है। ऐसे कार्यकर्ता मैंने देखे हैं जिनके पास परिवार को खिलाने के लिए कुछ नहीं है लेकिन उन्हें हर चुनाव के वक्त आत्मविश्वास घेर लेता है। उन्हें यह भ्रम हमेशा ही रहता है कि मैं लोकप्रिय हूँ और मेरे मत दूसरे लोग अपने नाम से ले जाते हैं। खैर इस बार तो जीत ही जाऊँगा। सुबह शाम दोपहर वे चक्कर लगाते हैं। पाँच बार तो उन्हें हारते मैंने देखा है। बड़ी गंभीरता से, जैसे देश को जरूरत है इनकी विधानसभा में। वे मेरे पास आते, मेरे हाथ में एक छपा परचा रखते। कहते - ये मेरा घोषणापत्र है। सब तरफ से सपोर्ट मिल रहा है। वे मोहल्लों के नाम गिनाते हैं जो उन्हें मत निश्चित देंगे। चार बार हारकर भी पाँचवीं बार इतना आत्मविश्वास एक अद्भुत चीज है। लोग उन्हें सनकी कहने लगे थे।

फिर बड़े व्यापारी होते हैं। मालामाल हैं सेठानी के पास खूब जेवर है। बड़ी जायदाद है। विशाल मकान है, बच्चे हैं सब है। वे मित्रों से कहते हैं - भैया अपने पास भगवान का दिया सब कुछ है, अब तो विधायकी चाहिए। हमारे नाम के आगे या पीछे विधायक लगे। विधायक सेठ अमुकचंद। ऐसा हम चाहते हैं। पैसे की बात नहीं है, कितना भी खर्च कर सकते हैं। इनमें शायद ही कोई जीतता हो।

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