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परसाई के राजनीतिक व्यंग्य

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :296
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9709
आईएसबीएन :9781613014189

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राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।

कवि शमशेर बहादुर सिंह ने मुझे अपनी कीमत पर हँसाया और खुद भी हँसते रहे।

मैंने कहा - शमशेर जी 'वसुधा' में 1957 में हमने आपकी एक कविता छापी थी वह मुझे अभी भी याद है-

दुनिया में हैं एक से एक काबिल शमशेर

है काम ये शायर का नहीं दिल शमशेर

हँसते-हँसते उठाना इक उम्र का बोझ

कहना आसान करना मुश्किल शमशेर

शमशेर जी ने बड़ी संजीदगी से कहा - तुममें घटिया कविता याद रखने की विकट प्रतिभा है। एक क्षण मैं स्तब्ध रहा। और फिर हम दोनों खूब हँसते रहे!.

इस तरह का हास निर्मल होता है। कोई खोट नहीं हो तो। फूहड़ता नहीं होती। किसी को चोट नहीं पहुँचती।

पर नीच, फूहड़ हास-परिहास भी होता है। किसी की मजबूरी पर हँसते लोग मैंने देखे हैं। विकलांगता, गरीबी, दुःख पर हँसते लोग भी मैंने देखे हैं और उन पर थूक देने की तबीयत हुई है। किसी को जानबूझकर चोट पहुँचाकर हँसना नीचता है। यह हँसनेवाले को गिराती है। निंदा गोष्ठियाँ बहुत होती हैं। चार-पाँच लोग बैठकर किसी की निंदा करके मजा लेते हैं। हँसते हैं। अक्सर छोटे लोग अपने छोटेपन की कुंठा से मुक्ति पाने के लिए बड़ों की निंदा करते हैं और हँसते हैं। जब उन साथ हँसनेवालों में से कोई उठकर चला जाता है तो उसकी निंदा करके बाकी लोग हँसते हैं। ये परस्पर मित्र कहलाते हैं, पर कोई किसी का मित्र नहीं होता। इनके परस्पर प्रेम का आधार दूसरों के प्रति घृणा होता है।

वनमानुष नहीं हँसता। पर लकड़बग्घा हँसता है। चंद्रकांत देवताले के कविता संग्रह का नाम है - लकड़बग्घा हँस रहा है। मैंने लकड़बग्घा नहीं देखा। चिड़ियाघर में भी नहीं देखा। जिन्होंने देखा है वे बता सकते हैं कि यह क्रूर जानवर हँसता है या नहीं। हँसता होगा तो उसकी हँसी मगर के आँसू जैसी होती होगी।

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