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परसाई के राजनीतिक व्यंग्य

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :296
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9709
आईएसबीएन :9781613014189

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राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।

उन्होंने हँसने का कारण पूछा तो मैंने बता दिया। तब वे भी हँसने लगे। एक जगह कवि गोष्ठी थी। हाल भरा था। कवि भवानी प्रसाद मिश्र भी थे। भवानी भाई कविता पढ़ते हुए अपनी आँखों का, हावभाव का, मुखमुद्रा का प्रभावकारी उपयोग करते थे। उनकी आँखें आई थीं और वे काला चश्मा लगाए थे। उनसे कविता पढ़ने को कहा गया तो वे लाचारी से बोले - मैं क्या कविता पढूँ। मेरी तो आँखें आई हैं। मेरे मुँह से निकल गया - आप कविता कहिए, आँखें मैं मटका दूँगा। सब लोग हँस पड़े। भवानी भाई भी हँसे और मन से कविता पढ़ी।

किसी-किसी आदमी के तकिया कलाम हो जाते हैं। जैसे क्या कहा, समझे कि नहीं, ठीक है न, आई टेल यू होन्स्टली। एक मालगुजार मुझसे बात कर रहे थे बेटे के बारे में - गाँव में लड़का मैट्रिक हो गया। तो हमने उठायके उसको जबलपुर भेज दिया। वह बुआ के पास रहता था। हमने उसको उठायके साइकिल भी खरीद दी और उठायके तीन जोड़ी सूट सिलवा दिए। कहने लगा कि हमें अब लूना चाहिए। कालेज दूर है। तो हमने उठायके लूना भी खरीद दी। फिर कहने लगा कि पढ़ाई कच्ची है। तो हमने उठायके ट्यूशन भी लगा दी। मैं बड़ी मुश्किल से 'उठायके पर हँसी रोके था।

जब लगा कि फट पडूंगा तो उठायके बहाना बनाकर खिसक दिया। मेरे साथी अध्यापक को स्कूल में एक समारोह में स्वागत भाषण देना था, उन्होंने मुझसे कहा कि अच्छा भाषण तैयार करवा दो, तो मैंने करवा दिया। फिर मैंने कहा - तुम्हारी आदत बार-बार 'समझे कि नहीं’ कहने की है। तुम सावधान रहना। मैं तुम्हारे पास बैठूंगा। तुम्हारे मुँह से 'समझे कि नहीं' निकला तो मैं तुम्हारा पाँव दबाऊँगा। सामने बहुत लोग शहर के बैठे थे। मेरे साथी ने भाषण शुरू किया - देवियों और सज्जनों, समझे कि नहीं? (मैंने पाँव दबाया) आज हमारा बड़ा सौभाग्य है कि आप हमारे विद्यालय में पधारे हैं। समझे कि नहीं। (पाँव दबाया) हमने इस वर्ष कई प्रतियोगिताएँ आयोजित कीं समझे कि नहीं। मैंने फिर पांव दबाया। वे कहने लगे-अब पाँव दबाओ चाहे कुछ करो ‘समझे कि नहीं’। हमने निबंध लेखन प्रतियोगिता, वाद विवाद प्रतियोगिता की समझे कि नहीं। मैं हार गया और वे समझे कि नहीं कि झड़ी लगाते रहे।

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