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परसाई के राजनीतिक व्यंग्य

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :296
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9709
आईएसबीएन :9781613014189

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राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।

एक दिन उन्होंने शहर के सबसे बड़े उद्योगपति के महल की बात निकाली। पूछा-वह महल कितने का होगा। मैं जानता था कि वह करोड़ों का होगा। पर मैंने शैतानी से कहा - यही तीस पैंतीस हजार का होगा। वे इस तरह चिल्लाए जैसे मैंने उनके खुद के मकान को गिरा दिया हो - व्हाट डू यू मीन? वह महल तीन करोड़ का होगा और आप कहते हैं, तीस हजार का। मुझे मजा आ रहा था। मैंने गंभीरता से कहा - तो पचास हजार का होगा। वे और बौखलाए - यू आर मैड। आपका दिमाग खराब हो गया। इतने कीमती महल को आप पचास हजार का कहते हैं। आप मेरा अपमान कर रहे हैं। मुझे और मजा आ आया। मैंने गंभीरता से कहा-आप कहते हैं, तो पछत्तर हजार का होगा। इससे ऊपर नहीं। वे खड़े हो गए। गुस्से से काँप रहे थे। कहने लगे - मैं आपसे ऐसी बात की आशा नहीं करता था। आप सरासर मुझे तमाचा मार रहे हैं। आपका लिहाज करता हूँ। दूसरा कोई ऐसा कहता तो - मैंने कहा, मैं मजाक कर रहा था। असल में उस मकान के पंद्रह करोड़ लग चुके हैं और मकान मालिक नहीं बेच रहे हैं। वे फिर चिल्ला उठे। आप फिर ऊटपटांग बात करते हैं। उस पुराने कमजोर मकान को पंद्रह करोड़ में कोई पागल ही खरीदेगा। क्या रक्खा है उसमें गिरती दीवारों के सिवा। अब वे मेरी बात मान लेते कि वह तीस हजार का है। मैंने कहा - देखिए, यह मकान न आपका न मेरा। न वह मेरा होगा न आपका। मगर हम आधा घंटे से उस मकान की कीमत पर लड़ रहे हैं। वे थोड़ी देर चुप रहे फिर हँसने लगे।

यह तो मैंने एक व्यक्ति की बात की जिसके दिमाग पर मकान छाया हुआ है। पर हास्य या विनोद की स्थितियाँ जीवन में हमेशा ही आती हैं। मैं और मेरा एक मित्र एक सुसंस्कृत परिवार में नाश्ते के लिए बुलाए गए। टेबिल पर बढ़िया पकवान, मिठाई और फल रखे थे। हमसे मेजबान दम्पत्ति ने जो टेबिल के दूसरे छोर पर बैठे थे, कहा - ग्रहण कीजिए। मैंने एक रसगुल्ला उठाया।

मेजबान से कहा - आप भी तो खाइए।

उन्होंने कहा - अरे साहब, आप खाइए। हम तो खाते ही रहते हैं। एक क्षण मैं स्तब्ध रह गया। सोचा ये समझते हैं हम भुखमरे हैं, जिन्हें आज मिठाई खाने को मिल गई। पर दूसरे क्षण ही मैं ठहाका मारकर हँस पड़ा। वे सरलता में बोल गए थे।

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