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परसाई के राजनीतिक व्यंग्य

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :296
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9709
आईएसबीएन :9781613014189

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राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।

निर्मल मन हो तो कहीं भी निर्मल विनोद मिल जाता है। मेरा दो साल का नाती 'छोटू, मेरी कुर्सी से लगे तख्त पर बैठता है। मैं अखबार पढ़ता हूँ। वह अपनी बुद्धिमानी से खेलता है - सुपारी तमाखू की डिब्बियाँ खोलता है, कलम रगड़ता है, पत्रिका का पन्ना फाड़ता है। मैं उससे कहता हूँ - छोटू उधम मत करो। वह सयाने आदमी की चालाकी और अदा से कहता है- तुम तो पढ़ो। तुम पेपर पढ़ो न। उसकी इस बात से परिवार को हँसी आ जाती है।

हँसना सबसे प्रभावी मानवीकरण करता है। सूरदास तक अमानवी क्रूर घृणित, कठोरपंथ चलते थे जिनमें नरबलि, रक्तस्नान, शव साधना, कापालिक कर्म, हठयोग आदि ने समाज का अमानवीकरण कर दिया था। सूरदास ने सबसे अधिक कृष्ण की बाल लीला से मानवीकरण किया। भक्ति आंदोलन एक क्रातिकारी आंदोलन था। इस आंदोलन ने मानवीकरण किया, आस्था और आशा दी। अब इन वर्षों में दंगे दे रहा है। जिनमें सूरदास के बाल कृष्णों को काटा जा रहा है क्योकि किसी बच्चे का बाप मंदिर जाता है और किसी का मस्जिद।

मैं गंभीर हो चला। बात निर्मल हास्य की कर रहा था, जो जीवन में बिखरा है-रुदन से वक्त निकालकर। हास्य की बात करता हूँ। कुछ लोग भले होते हैं। किसी का कुछ नहीं बिगाड़ते। दूसरों की मदद करते हैं। पर अपने व्यवहार से कभी मनोरंजन करते हैं। कभी खीझ पैदा करते हैं। बहुत साल पहले मेरे पास एक रिटायर्ड सज्जन आकर बैठते थे। रिटायर्ड लोग मुझे अपना पनाहगार मानते हैं। वे समझते हैं कि मैं भी रिटायर हो चुका जब कि मैं मानता हूँ कि मेरा अभी 'प्रोबेशन' ही खत्म हुआ। वे जब भी आते किसी के मकान बनने की बात करते। मकानों के पीछे पागल थे। इस तरह की बातें करते - आदर्श कालोनी में डाक्टर गुप्ता का मकान बन रहा है। पंद्रह लाख का तो होगा। हनुमान कालोनी में जमीन की कीमत साठ रुपया वर्गफुट हो गई। तिवारीजी ने मदनमहल में मकान बनवा लिया है। आठेक लाख का होगा। रानडे अपना मकान बेचकर पूना चले गए। सस्ते में बेच दिया। वो जो शिखरचंद है न जो बेकार घूमता था, उसने गुप्तेश्वर कालोनी में दो मंजिला मकान बनवा लिया। नीचे के मंजिल में दूकान खोल ली। इसका मकान, उसका प्लाट, यह कालोनी, वह कालोनी, इसकी कीमत, उसकी लागत। बस यही बात। मुझे हँसी भी आती। खीझ भी आती। मेरा समय नष्ट होता।

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