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परसाई के राजनीतिक व्यंग्य

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :296
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9709
आईएसबीएन :9781613014189

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राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।


वनमानुष नहीं हँसता


दो महीने पहले मेरा एक लेख हास्य और व्यंग्य पर छपा था। उसे पढ़कर कुछ लोगों ने मुझसे रूबरू कहा और कुछ ने लिखा - ऐसा मालूम होता है कि आप हँसने के खिलाफ हैं। आपको कठोर व्यंग्य पसंद है। आदमी के हास-परिहास से आपको क्यों एतराज है।

मुझे कैफियत यह देनी है कि मैं व्यंग इसीलिए लिखता रहा हूँ कि ऐसी स्वस्थ स्थितियाँ बनें कि हर आदमी हँसता हुआ दिखे। कोई मनहूस, चिंतित या रोनी सूरत का नहीं हो। हँसना बहुत अच्छी बात है। प्राणियों में मनुष्य ही ऐसा है जिसे हँसने की क्षमता प्रकृति ने दी है।

पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी ने एक निबंध में लिखा है कि मैं चिड़ियाघर देखने गया। मैं बड़ी देर तक वनमानुष को देखता रहा। वह मनहूस चेहरा लिए था। वनमानुष हँसता नहीं है। द्विवेदी जी यह कहना चाहते हैं कि जो आदमी हँसता नहीं है, वह वनमानुष होता है। यह निबंध दूसरे महायुद्ध के समय लिखा मालूम होता है। वे लिखते हैं कि अगर तानाशाह हिटलर और मुसोलिनी को हँसी के इंजेक्शन दे दिए जाएँ तो वे हँसने लगेंगे। उनकी क्रूरता, कठोरता जाती रहेगी। वे मानवीय और लोकतांत्रिक हो जाएँगे। मैंने हिटलर, मुसोलिनी और स्तालिन के सैकड़ों चित्र तब देखे थे। किसी के चेहरे पर हँसी नहीं होती थी। बाद में स्तालिन का एक चित्र प्रचारित हुआ-एक बच्ची गुलदस्ता भेंट करने आती है और स्तालिन मुस्कुराते हुए उसे उठा लेते हैं। इस चित्र का प्रचार रूस में और विदेशों में बहुत किया गया। अब रूसी नेता ही कहते हैं कि वह चित्र एक योजना के तहत खिंचवाया गया था। यह दृश्य 'रूसी सर्कस' फिल्म के अंत में भी मैंने देखा था।

हँसना मन की निर्मलता है। जोनाथन स्विफ्ट ने लिखा है-जितनी देर आदमी हँसता है उतनी देर उसके मन में मैल नहीं रहता। उतनी देर उसका कोई शत्रु' नहीं होता। ईर्ष्या, द्वेष, घृणा के भाव नहीं रहते। पर मैंने ईर्ष्या और द्वेष की हँसी भी देखी है।

मैंने निर्मल हँसी की बात की है दूसरी तरह की गर्हित हँसी भी होती है। वनमानुष मनहूस रहता है। हँसता नहीं है। लकड़बग्घा हँसता है। कवि चद्रकांत देवताले के कविता संग्रह का नाम है- 'लकड़बग्घा हँस रहा है।' लकड़बग्घे की हँसी की बात बाद में करूँगा। पहले मनुष्य की निर्मल हँसी की बात।

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