लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> परसाई के राजनीतिक व्यंग्य

परसाई के राजनीतिक व्यंग्य

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :296
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9709
आईएसबीएन :9781613014189

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

194 पाठक हैं

राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।

किसी धर्म या पंथ या देवता में अटल विश्वास के प्रचार के लिए यह मिथक बनाए जाते हैं। मुझे आश्चर्य हुआ मोरोध्वज की कथा पढ़ कर। वह वैष्णव था। वैष्णव दयालु, अहिंसक, करुणामय होते हैं, ऐसा मानते हैं। पर विष्णु सपने में मोरोध्वज से कहते हैं कि अपना विश्वास सिद्ध करने के लिए भारी से तुम और पत्नी अपने बेटे की गर्दन काटो। मोरोथ्वज ऐसा ही करता है तभी विष्णु प्रकट होते हैं और लड़के को जोड़कर जीवित कर देते हैं।

अपने को ही ईश्वर मानने या कहनेवाले दूसरे प्रकार के भी होते हैं। ये न अहंकारी होते हैं, न अत्याचारी, न अपना डंका पीटनेवाले। ये ज्ञानी होते हैं, जिन्हें आत्मबोध होता है। अहं ब्रह्मास्मि याने मैं ही ब्रह्म माननेवाले और कहनेवाले हमारे यहाँ हैं। ये ज्ञानी विनयी होते हैं, कुछ इस तरह सोचते हैं कि जब सब जगह ईश्वर है तो मेरी आत्मा में भी है। मैं भी ब्रह्म हूँ। वे किसी देव को नहीं पूजते। वे यह दावा नहीं करते कि उन्होंने सृष्टि की रचना की और उसका पालन कर रहे हैं। ये हिरण्यकश्यप और नमरूद से बिलकुल भिन्न होते हैं।

एक संत अभी हो गए हैं। ये भी अपने को ईश्वर कहते थे। उनकी घोषणा थी-अनलहक याने मैं ही ब्रह्म हूँ। इनका एक पंथ चला, इसमें मंसूर हुआ जिसे कट्टरपंथियों ने सूली पर चढ़ा दिया।

लेख के शीर्षक में मैंने मिर्जा गालिब की पंक्ति दी है। शेर है-

ये क्या  नमरूद  की खुदाई थी

बदंगी में भी मेरा भला न हुआ।

गालिब खुदा में विश्वास तो रखते थे पर नमाज के पाबंद नहीं थे। मस्जिद नहीं जाते थे। घर में कभी नमाज पढ़ ली। उन्होंने नमाज पढ़ी इसी आशा से कि मेरा भला होगा। पर भला नहीं हुआ। तो वे कहते हैं कि मैंने झूठे खुदा की, नमरूद की बंदगी कर ली।


0 0 0

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

लोगों की राय

No reviews for this book