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परसाई के राजनीतिक व्यंग्य

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :296
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9709
आईएसबीएन :9781613014189

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राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।


ये क्या नमरूद की खुदाई थी


शीर्षक पढ़कर पाठक कुछ चकित होंगे। कल होली खेली गई थी और आज लोग कह रहे हैं कि इस साल होली बहुत शांति से मनाई गई। न कोई हुल्लड़ न गुंडागर्दी न उपद्रव न शोर। इस बार तो बाजों और नारों की आवाज तक नहीं आई। पहले यह हाल था कि शरीफ आदमी घर से बाहर दिन भर नहीं निकलता था। इस बार न कीचड़, न पेंट और न रंगों का पुराना अत्याचार।

यह परिवर्तन आखिर कैसे हो गया? क्या समाज में एकदम बदलाव आ गया। संस्कृति एकदम से सक्रिय हो गई? किसी अदृश्य नैतिक आंदोलन से शालीनता आ गई? लोग गुलाल लगाते थे, गले मिलते थे और शालीनता से मुस्कुराते थे। एकदम गाँधीवादी होली हो गई। एकाएक यह क्या हुआ? हुआ यह कि कुछ खास बातें हुई। व्यवस्था के मंथन से रत्न निकलते हैं, यह हर क्षेत्र में चमकते हैं, और यही उत्सव की, समारोह की, या राजनैतिक हलचल की जान होते हैं। ये रत्न किशोरावस्था से 30-35 साल तक के होते हैं। उत्सव को रंग ये ही देते हैं। यही उत्सव को प्राण देते हैं। ये ही त्यौहार को डरावना बना देते हैं। हर मोहल्ले में ये अलग दिखते हैं। ये इतने महत्वपूर्ण होते हैं, कि इनके नाम पुलिस रिकार्ड में दर्ज होते हैं। ये छुट्टे होते थे तो रंगोत्सव में रौनक थी, जान थी। इस बार पुलिस ने समाज की इन शोभाओं को तीन चार दिन जेल में डाल दिया। इतना ही नहीं सड़क पर घनी गश्त करके पुलिस आतंक अलग फैलाए रही। इस बार जिसे लोग सामाजिक क्रांति कहते हैं, वह पुलिस की लाई हुई थ्री। किसी जनआंदोलन की नहीं। आदमी की आत्मा एकदम जाग नहीं उठी थी। असल में जो करते हैं, वे तो भीतर थे इसलिए बाहर समाज में शांति और शालीनता होनी ही थी। कुछ परिवर्तन भी हुए हैं। इस बार होली के हुड़दंग में किसी राजनैतिक दल ने रोटी नहीं पकाई। त्यौहार को सांप्रदायिक भी नहीं बनने दिया गया। दूसरी बात यह है कि, वर्गों के उत्सव बदल गए हैं। पहले मध्यम वर्ग पढ़े लिखे लोग गुलाल लेकर जुलूस निकालते थे, बहुत अच्छी फागें गाई जाती थी। कहीं कोई बदतमीजी नहीं होती। रात को मनोरंजक कार्यक्रम होते थे। सब कुछ सुरूचिपूर्ण और शालीन होता था। उच्च वर्ग हाथ जोड़कर हें-हें करता था। बाद में सब जातियों के मध्यम वर्गीय लोगों ने इसे नीची जातियों के लिए छोड़ दिया। नए धनी वर्ग और उसमें पिछलग्गू मध्यमवर्ग ने नए त्यौहार अपना लिए।

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