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परसाई के राजनीतिक व्यंग्य

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :296
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9709
आईएसबीएन :9781613014189

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राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।

गरीबी, भुखमरी, दुर्बलों पर अत्याचार बेहद. बढ़ गए हैं। यह देश गरीबों, दरिद्रों का ही है। पर वही वंचित हैं। आरामदायक हाल में, एयरकंडीशंड वातावरण में, गुलगुले सोफों पर बैठ उच्चवर्गीय सुविधा भोगी इन दरिद्रों की दशा पर चर्चा करते हैं। ऊँचे बौद्धिक स्तर से विश्लेषण करके 'थ्योरी' उद्धृत करते हैं। यह इनके लिए ऐयाशी है। गंदा विलास है। मामला कुल इतना है कि हरिजन के छोटे खेत पर उसे ऊँची जाति के लठैत, पुलिस, पटवारी हल नहीं चलाने देते। यह इन ऊँचे लोगों के दिमाग में घुसती नहीं। वे एक शाम गरीबों की दुर्दशा पर चर्चा करके सार्थक करते हैं, और फिर 'बार' में घुस जाते हैं। वे नहीं जानते कि ये करोड़ों गरीब, भुखमरे, वंचित पूरी व्यवस्था में आग लगा सकते हैं। सबसे बड़ा खतरा गणतंत्र को धर्म आधारित सांप्रदायिक राजनीति से है। दुनिया हँसती होगी, इस राजनीति से। राजनैतिक दलों का आधार आर्थिक, सामाजिक कार्यक्रम होते हैं। हर पार्टी दुनिया में अपने घोषणा-पत्र के द्वारा यह बताती है, कि यदि हम सत्ता में आए, तो यह विकास करेंगे, और औद्योगिक क्षेत्र बढ़ाएँगे, विदेशी व्यापार इतना होगा, उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन इतना होगा, गरीबी इस तरह मिटाएँगे। दुनिया के लोग चकित होंगे, कि भारत की एक पार्टी का प्रमुख कार्यक्रम और मत माँगने का एकमात्र वादा है - हम मस्जिद की जगह मंदिर बना देंगे। हम तो इस पर रोते हैं। विदेशी हँस सकते हैं। देश का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ था। बँटवारे में दस लाख लोग मरे थे। हमने कुछ नहीं सीखा।

आज देश की हवा में जहर है। यह आकस्मिक और कुछ समय का आवेश-उन्माद नहीं है। यह ठंडे दिमागों से बनाई गई एक योजना है, जिसका उद्देश्य सांप्रदायिक नफरत, टकराव और विभाजन के द्वारा देश की सत्ता पर कब्जा करना है। इस राजनीति ने कितने दंगे कराए, कितनी जानें लीं, कितनी संपत्ति नष्ट की। आदमी से आदमी अजनबी हो गया, है। कई सालों के मित्र अलग-अलग हो गए। सामाजिक संबंध बिखर गए। मैं सत्य कहता हूँ कि तीस-तीस सालों के मेरे मित्रों से जिनसे मैं खुलकर बातें करता था, अब हिचक से सावधानी से बात करता हूँ। इस राजनीति  ने काफी तक समाज को बाँट दिया है।

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