ई-पुस्तकें >> परसाई के राजनीतिक व्यंग्य परसाई के राजनीतिक व्यंग्यहरिशंकर परसाई
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राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।
देख रहा हूँ इतने सालों में भी गणतंत्र की भावना 'फेडरल स्पिरिट' आई नहीं। इस भावना के अनुसार राज्यों में आपसी सहयोग होता है। एक दूसरे की मदद की इच्छा होती है। विवाद सद्भाव से निबटा लिए जाते हैं। केंद्र किसी राज्य से पक्षपात नहीं करता। मगर मैं देखता हूँ कि हर राज्य अधिक हड़प लेना चाहता है। कावेरी जल-विवाद ने दो राज्यों की जनता में दुश्मनी पैदा कर दी। कर्नाटक सरकार ने कावेरी नदी का पानी रोक लिया। आंध्र में नहीं जाने दिया। आंध्र में बसे कन्नड पिटते थे, और कर्नाटक में बसे आंध्रवाले पिटते थे। चंडीगढ़ एक अच्छा शहर बन गया तो उसे हड़पने के लिए कितना खून-खराबा होता रहा है। यह गणतंत्र की भावना नहीं है।
आज देश में विश्वास खो गया है। आस्थाहीनता आ गई है। परस्पर भरोसा नहीं रहा। संवेदनशीलता चली गई। मैं अपने लिए - दूसरे के भले से क्या मतलब। स्वार्थपरता परिवारों से लेकर राजनीति के शिखर तक आ गई है। जीवन-मूल्य जो सदियों से विकसित हुए लगभग समाप्त हो गए हैं। जीवनमूल्य पद्धति बदल गई है। मूल्यपद्धति के केंद्र में मनुष्य होता था, अब पैसा, स्वार्थ है। समाज का काफी हद तक अमानवीयकरण हो चुका है। जब पतनशीलता आती है, अमानवीयकरण होता है, तब वह खंड-खंड में नहीं संपूर्ण होता है। राजनीति में आया है तो बाजार में भी आएगा। विश्वविद्यालय में भी आएगा। अस्पताल में भी आएगा। जो क्षेत्र पवित्र और मानवीय कहलाते हैं, जैसे शिक्षा या चिकित्सा इनके बारे में भी राय थी कि इनके मूल्यों का पतन नहीं होगा। यह गलतफहमी है। डाक्टर भी पैसे के लिए मरीजों को मार रहे हैं, और अध्यापक भी पैसे के लिए छात्र की जिंदगी बना या बिगाड़ रहे हैं। कोई क्षेत्र नहीं बचा पतन से। और कोई व्यक्तित्व नहीं है, गाँधीजी जैसा और कोई आंदोलन नहीं है, जो हमें उठाए। जिन कर्मों पर कभी शर्म आती थी, उन कर्मों पर गर्व होता है। समाज में दो शक्तियाँ होती हैं - जयजयकार की और धिक्कार की। जयजयकार अच्छे कार्यों को प्रोत्साहन देता है। धिक्कार व्यक्ति और समूह के दुराचार को रोकता है। पर अब जयजयकार गलत आदमी करवा लेते हैं। धिक्कार की शक्ति समाज ने खो दी। नतीजा है - जहाँ देखिए बेखटके अनैतिकता, घूसखोरी, चोरी और गैरजिम्मेदारी, अमानवीयता फैली है। इसे धिक्कारनेवाला कोई नहीं। हम अपने गरेबाँ में नहीं झाँकते। दूसरों को देखते हैं। सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्ताँ हमारा - का यह हाल हो गया है।
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