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परसाई के राजनीतिक व्यंग्य

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :296
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9709
आईएसबीएन :9781613014189

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राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।

1977 में बनी जनता सरकार ने सोना बेच दिया था। जब यह सरकार गिरी और 1980 में आम चुनाव हुए, तब इंदिरा जी ने चुनाव भाषणों में इसका सब उपयोग किया। वे भाबुकता से कहती थी-जब देश पर हमला हुआ तो मैंने हथियारों की खरीद के लिए देशवासियों से सोना माँगा। मेरी बहनों, बेटियों, बहुओं ने अपने सोने के मंगलसूत्र तक दे दिए थे। उन्हें हमने हिफाजत से रखा था। पर इस जनता सरकार के लोगों ने बहिनों, बेटियों, बहुओं के सुहाग की निशानी वे मंगलसूत्र भी बेच दिए। यह सुनकर वहाँ बैठी स्त्रियाँ कहती-नास पिट जाय पापियों का। साड़ी गहरे छूती है। इराक नेक है। सवाल है साड़ियाँ गरीब स्त्रियों तक कौन पहुँचाएँगे? सरकारी मशीनरी नौकरशाही साड़ियाँ बाँटेंगी। तब तो साड़ियाँ बाजार में बिक जाएँगी। या पंचों, सरपंचों को साड़ी बाँटने का काम सौंपा जाएगा? तब तो जैसे शक्कर गरीबों तक पहुँचती है, वैसे ही साड़ियाँ पहुँचेंगी। जब तक गरीबों की ही समितियों को साड़ी बाँटने का काम नहीं दिया जाएगा, साड़ियाँ बीच में बहक जाएँगी। चंचल मन की होती हैं।

परिवार में एक आदमी को नौकरी देने का निश्चय बहुत अच्छा है। सवाल है-नौकरी कौन देगा? नौकरी कैसे मिलेगी? क्या इन्हीं 'एंप्लायमेंट एक्सचेंज' (रोजगार-दफ्तर) के मारफत नौकरी मिलेंगी? मगर इन दफ्तरों में तो फटे पाजामे, नंगे पाँव ग्रेजुएट बेकार से भी नाम रजिस्टर करने के लिए घूस माँगी जाती है। यह नौकरशाही ऐसी है कि भिखारी से भी भीख माँग लेती है। उसका भीख का कटोरा ले लेती है।

नौकरशाही पर अच्छे काम छोड़े तो वे नहीं होंगे। साम्राज्यवादियों ने एक हृदयहीन अमानवीय नौकरशाही का ढाँचा बनाया और हमें दे गए। स्बाधीनता के बाद लगातार यह भ्रष्ट होती गई और उसका अधिक से अधिक अमानवीकरण होता गया। यह कूर और लोभी भ्रष्ट नौकरशाही शोषक गुटों, वर्गो से मिली है। यह कोई कल्याणकारी काम नहीं होने देगी। काफी अरसे तक लगभग 3-4 साल मैं दिल्ली के अखबारों में एक समाचार पढ़ता रहा। दिल्ली से कुछ किलोमीटर दूर एक गाँव है। वहाँ हरिजनों को जमीनें दी गई लेकिन ऊँची जाति के भूमिपति हरिजनों को खेत जोतने नहीं देते थे। हथियार लेकर खड़े हैं। साल दर-साल यह होता रहा। मैं सोचता पास में दिल्ली में भारत की सरकार है। वहीं जल-थल और वायुसेना के मुख्यालय हैं। वहीं सेंट्रल रिजर्व पुलिस का मुख्यालय है। ये सब मिलकर भी हरिजनों से उन्हें दी गई भूमि पर हल नहीं चलवा सकते थे।

गाँवों में सभी राज्यों के हरिजनों को सरकार जमीन दे देती है। पर कितने हरिजन खेती कर पाते हैं। बड़े किसान, ऊँची जाति के लोग, पुलिस, पटवारी सब तो उनके खिलाफ होते हैं। आखिर वे खेत मजदूर ही रह जाते हैं।

यह नौकरशाही असली सरकार है। यह बहुत ताकतवर है। यही गरीबों के लिए बनाई गई सारी योजनाएँ विफल कर देती है। सोचते थे, समाजवादी व्यवस्था में नौकरशाही ऐसी नहीं होती, मगर वहाँ भी नौकरशाही जड़, भ्रष्ट और अमानवीय हो गई।

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