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परसाई के राजनीतिक व्यंग्य

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :296
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9709
आईएसबीएन :9781613014189

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राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।


दर्द लेकर जाइए


सम्मेलन सब अच्छे होते हैं। राजनैतिक दलों के अधिवेशन सब अच्छे होते हैं। इन अधिवेशनों के फैसले, प्रस्ताव, घोषणाएँ सब अच्छे होते हैं। चुनाव जब साल भर बाद होनेवाले हों तब तो ये घोषणाएँ और अच्छी होती हैं। कांग्रेस पुरानी पार्टी है। और एक मध्यममार्गी पार्टी बंगलोर में जन्म ले चुकी है। यह पुनर्जन्म है। एक जन्म 'समाजवादी जनता दल' नाम से हुआ था। दूसरा जन्म सिर्फ 'जनता दल' नाम से हुआ। पता नहीं  'समाजवादी' शब्द क्यों छोड़ दिया। होमियोपैथी के डाक्टरों के पास सिर्फ शक्कर की गोलियाँ भी होती है जिनमें दवा नहीं होती। जब कोई आदमी बीमारी की शिकायत करता है, मगर डाक्टर देखता है कि उसे कोई बीमारी नहीं है, तब उसके मानसिक संतोष के लिए उसे शक्कर की गोलियाँ खाने के लिए दे देता है। यह मनोचिकित्सा है। शक्कर की दवानुमा गोलियों का कोई असर नहीं होता पर खानेवाला अनुभव करता है कि बीमारी दवा से चली गई और मैं चंगा हूँ। तो इस देश में  'समाजवाद' तो होमियोपैथी की शक्कर की गोली है। इससे न फायदा न नुकसान। पता नहीं इन राजनेताओं को 'समाजवाद' की शक्कर की गोली से क्यों परहेज है। भारतीय जनता पार्टी तक 'गाँधीवादी समाजवाद' की गोलियों लोगों को खिलाती है, क्योंकि लोगों को भ्रम है कि उन्हें गरीबी का रोग है। गरीबी को बहुत से मानवतावादी एक मनोरोग मानते हैं। वे तो भूख को भी मनोरोग मानते हैं।

दिल्ली में नवंबर में अखिल भारतीय कांग्रेस महासमिति (ए. आई. सी. सी.) का अधिवेशन हुआ था। इस समागम के निर्णयों ओर घोषणाओं पर मैं ध्यान दे रहा था। बहरहाल, कांग्रेसाध्यक्ष राजीव गाँधी ने अंतिम भाषण में कहा कि आप लोग यहाँ से दर्द लेकर जाइए। राजीव को शायद पता हो कि बहुत से प्रतिनिधि तो दर्द लेकर गए ही थे। हर प्रदेश में कांग्रेस दो जातियों में बँटी है - संतुष्ट और असंतुष्ट। ये जातियाँ ब्राह्मण कायस्थ, ठाकुर, अग्रवाल, आदि भेद मिटा देती हैं जैसे वर्ग-भेद होता है तब जाति, भाषा, धर्म, क्षेत्र के भेद मिट जाते हैं और दो वर्ग रह जाते हैं, आमने-सामने। हर राजनैतिक दल में संतुष्ट और असंतुष्ट होते हैं। जातियाँ बदलती रहती हैं। जो आज संतुष्ट जाति का है, वह कल असंतुष्ट जाति में 'कन्वर्ट' हो सकता है और असंतुष्ट संतुष्ट की जनेऊ धारण कर सकता है। जो न संतुष्ट है न असंतुष्ट, वह पागल है। तो सारे देश से असंतुष्ट दिल्ली दर्द लेकर ही गए थे। जो बिना दर्द के संतुष्ट हो गए थे, वे धुकधुकी लेकर गए थे कि अगले चुनावों में टिकिट मिलती है या नहीं। जो खुद दर्दमंद थे उनसे कहना कि यहाँ से दर्द लेकर जाओ, ज्यादती है। राजीव गाँधी ने जो दर्द ले जाने की बात की उसका पूर्व संदर्भ है। हमारे अधिवेशन पर गरीब और गरीबी छाई रही। हर राजनैतिक दल की सार्वजनिक बैठकों में गरीब और गरीबी छाए रहते हैं। राजीव चाहते थे कांग्रेसी नेता गरीबों का दर्द दिल में लेकर जाएँ।

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