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परसाई के राजनीतिक व्यंग्य

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :296
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9709
आईएसबीएन :9781613014189

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राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।

यह संसदीयता नहीं, संसदीयता का प्रहसन है। मगर यह सदस्यों के लिए कामिक और जनता के लिए ट्रेजिक है। जनता को राहत देने की बात सबके घोषणा-पत्र में होती है। जनता को राहत में सबसे पहिले आती है, महँगाई रोकना। मुनाफाखोरी, जमाखोरी कालाबाजारी रोकना। आज हाल यह है कि किसी के पास आटा हो, तो भी वह रोटी नहीं बना सकता। ईंधन इतना महंगा हो गया है। घोषणा हर सरकार करती है - हम व्यापारियों से सख्ती से निपटेंगे। कीमतें कम करेंगे। भारतीय जन सुनता है और देखता है कंट्रोल लागू हुआ। फिर कंट्रोल उठा। बाबू रामानुजलाल श्रीवास्तव ('ऊँट' ) ने कई साल पहले लिखा था-

तब भी थी गोल अब भी है गोल

वाह री दुनिया वाह रे भूगोल

तब भी थी पोल अब भी है पोल

वाह रे कंट्रोल वाह रे डीकंट्रोल।

मुद्रास्फीति साधारण जन नहीं समझता। पर नेता कहकर बरी हो जाते हैं - क्या करें? मुद्रास्फीति बढ़ गई है। आदमी न इंटरनेशनल मानेटरी फंड जानता, न वर्ल्ड बैंक, न एड इंडिया क्लब, न एड इंडिया कान्सोर्टियम, न बैलेंस आफ पेमेंट। ये सब जुमले उसके मुँह पर फेंकने से क्या होता है। मगर सवाल है - राजपद जरूरी है कि जनता को राहत? राजपद जरूरी है। अभी मैंने एक पत्रिका में विश्वनाथ प्रताप सरकार में एक मंत्री का कथन पढ़ा। उसने कहा है कि कीमतें घटाने के लिए व्यापरियों के खिलाफ कुछ कठोर कार्यवाही की योजना बनाकर मैंने प्रधानमंत्री को दिखाई। विश्वनाथ प्रताप ने कहा कि व्यापारियों पर सख्ती करने से भारतीय जनता पार्टी नाराज हो जाएगी। यह समर्थन वापस ले लेगी तो सरकार गिर जाएगी। ऐसा मत करो। यानी लूटनेवालों को लूटने दो। भूखों मरनेवालों को मरने दो। प्रधानमंत्री और मंत्री बने रहो। हम तो भूखे नहीं हैं। भारतीय जन के द्वारा निर्वाचित सरकार के मंत्रियों का यह हाल है? वे समझते हैं कि इस देश के मनुष्य खाद हैं, और इस खाद से वे फूल की तरह बढ़ते और खिलते हैं।

मंडल आयोग की रिपोर्ट जैसी की तैसी लागू कर देना विश्वनाथ प्रताप सिंह का राजनैतिक अवसरवाद था। पिछड़ी जातियों को सुविधाएँ जरूर देना चाहिए, पर किनको? आर्थिक स्थिति भी आधार होना चाहिए। हो यह रहा है कि बिहार और उत्तर प्रदेश का बड़ा और ताकतवर 'मंडलीय' छोटे 'मंडलीयों' को मार रहा है, उनकी झोपड़ियों जला रहा है, उनसे बेगार करवा रहा है।

एक उन्माद है, अयोध्या का। राम-राज लानेवाले हैं। तुलसीदास ने लिखा है-

दैहिक दैविक, भौतिक तापा।

राम राज काहू नहिं व्यापा।

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