ई-पुस्तकें >> परसाई के राजनीतिक व्यंग्य परसाई के राजनीतिक व्यंग्यहरिशंकर परसाई
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राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।
तेरे वादे पे जिए हम
मिर्जा गालिब का शेर है-
तेरे वादे पे जिए हम ये तू जान भूल जाना
कि खुशी से मर न जाते अगर एतबार होता।
मेरी जान, तू यह समझती हो कि तेरे वादे की आशा पर हम जीते रहे तो यह गलत है। अगर तेरे वादे पर हमें भरोसा होता तो खुशी से मर जाते।
आम भारतीय जो गरीबी में, गरीबी की रेखा पर, गरीबी की रेखा के नीचे है, वह इसलिए जी रहा है कि उसे विभिन्न रंगों की सरकारों के वादों पर भरोसा नहीं है। भरोसा हो जाय तो वह खुशी से मर जाय। यह आदमी अविश्वास, निराशा और साथ ही जिजीविषा खाकर जीता है। आधी सदी का अभ्यास हो गया है। इसलिए- 'दर्द का हद से गुजर जाना है दवा हो जाना।' उसके भले की हर घोषणा पर, कार्यक्रम पर वह खिन्न होकर कहता है - ऐसा तो ये कहते ही रहते हैं। होता-वोता कुछ नहीं। इतने सालों से देख रहे हैं। और फिर जीने लगता है।
एक मुख्यमंत्री ने बातचीत के दौरान कहा - लोगों में इतनी 'सिनिसिज्म' (आस्था), निराशा क्यों है? मैंने कहा - कई सालों से वादे हो रहे हैं, जो पूरे नहीं होते। आप उत्थान की योजना बनाते हैं, घोषणा करते हैं, पर वह कार्यान्वित नहीं होती। आप हरिजन को जमीन देते हैं, पर वह उसे जोत नहीं पाता। उसके खिलाफ बड़े भूमिपति, पटवारी, पुलिस, ऊँची जाति के ये लोग उसे हल नहीं चलाने देते। जिस दल की सरकार हो उसके निर्णयों को पार्टी कार्यकर्ताओं को कार्यान्वित करना चाहिए। पर किसी भी पार्टी की सरकार हो, कार्यकर्ता बाधा ही बनते हैं। आप पाँच गाँवों में भूमिहीनों, हरिजनों को जमीन दीजिए। और मुस्तैद-शासकीय मशीनरी तथा कार्यकर्ताओं - के द्वारा उन्हें दो फसलें कर लेने दीजिए। आप देखेंगे कि इलाके से 'सिनिसिज्म' खत्म हो जाएगा। लोग कहेंगे - भई अब तो होने लगा। सरकार कहती है तो कराती भी है। मगर भ्रष्ट शासकीय मशीनरी, निहित स्वार्थी लोग और पार्टी नेता ऐसा होने नहीं देते।
मगर वादे पूरे होने लगे तो खतरा है कि लोग खुशी से मर जाएँगे। इसलिए मानवतावादी सरकारें, शासकीय कर्मी और नेता लोगों की जान बचाने के लिए यह क्रूरकर्म नहीं करते। मगर यह भारतीय भौंचक मनुष्य वादे सुनता है। घोषणाएँ सुनता है। नारे सुनता है। और उलटा होते देखता है, भोगता है।
दो सालों में दो चुनाव यह भारतीय जन देख चुका है। बेहिसाब धन का खर्च। कई मीटर लंबे बैनर और पोस्टर। वह अपने घर का दरवाजा नहीं खोज पाता। अपराधी को जनमत बनाते देखता है। वीडियो कैसेट, चौबीस घड़ी शोर, रोशनी आँखें फोड़नेवाली। यह क्या एक गरीब देश का चुनाव है? किस तरह की हिस्सेदारी? यही कि चुन कर किन्हीं सम्माननीयों को संसद और विधानसभाओं में भेज दें और फिर वे सदन को और सचिवालय को ही पूरा देश मान लें।
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